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"अध्यापक की सोच" ब्लॉग केवल अध्यापकों के लिए ही है . इसमें जितनी भी सामग्री होगी वो मूलतः शिक्षाविदों के लिए, शिक्षाविदों के द्वारा लिखी गई है . शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूजनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है।
Posted by : अध्यापक की सोच
भारत में शिक्षा की स्थिति फिनलैंड जैसी कब होगी?
बहुत से शिक्षाविद यह सवाल पूछते हैं?
दुनिया में शिक्षा पर होने वाला कोई भी विमर्श या सेमीनार फ़िनलैंड का जिक्र किए बिना पूरा नहीं होती। फ़िनलैंड की इस सफलता का रहस्य वहां की संस्कृति और शिक्षा व्यवस्था में है। शिक्षा के क्षेत्र में फिनलैंड नंबर क्यों है?
इस सवाल का जवाब खोजने के लिए बहुत सारे देशों के प्रतिनिधि फिनलैंड का दौरा करते हैं।
वर्तमान समय में फिनलैंड गहरे आर्थिक संकट का सामना कर रहा है और नई सरकार शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले आवंटन में कटौती पर विचार कर रही है, ऐसे में वहां शिक्षा के महत्व को लेकर नए सिर से चर्चाओं का दौर गर्म है।
वहां के पूर्व शिक्षा मंत्री पार स्टेनबैक अपने एक लेख में कहते हैं, “शिक्षा के लिए हमारे देश की तारीफ होना एक साधारण बात है। साल दर साल हमने बेहतर प्रदर्शन करते हुए कोरिया, सिंगापुर और जापान जैसे देशों को पीछे छोड़ा है।”
फ़िनलैंड की सफलता का रहस्य
वह अपने लेख में वे बताते हैं कि फ़िनलैंड के शानदार अधिगम स्तर (लर्निंग रिजल्ट) के मुख्यतौर पर तीन कारण हैं
1. हमारी संस्कृति में शिक्षा और सीखना दोनों को बेहद सम्मानित स्थान हासिल है। 19वीं शताब्दी में फ़िनलैंड ने आज़ादी के बाद सबके लिए शिक्षा (एज्यूकेशन फ़ॉर ऑल) में निवेश के माध्यम से एक राष्ट्रीय पहचान बनाई और उसे सुरक्षित रखा। इस तरह से आगे के विकास को रास्ता देने के लिए नींव पहले से तैयार थी।
2. दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण है ‘कोई बच्चा छूटे नहीं’ (“Leave no child behind”) का नारा। अमरीका में इस नारे के लोकप्रिय होने से काफ़ी पहले फ़िनलैंड के स्कूलों में इस स्लोगन को आत्मसात कर लिया गया। इसके कारण सीखने में परेशानी का सामना करने वाले छात्रों को शिक्षकों और सहायकों की तरफ़ से उनके बाकी सहपाठियों के औसत स्तर पर लाने का प्रयास किया गया। जो ऐसे बच्चों पर अतिरिक्त ध्यान देते ताकि बाकी बच्चों की तरह उनका अधिगम स्तर (लर्निंग लेवल) बेहतर किया जा सके।
3. इस तरह की सफलता हासिल करने के लिए आपको उच्च गुणवत्ता वाले संवेदनशील शिक्षकों की जरूरत होती है। शिक्षा के क्षेत्र में अप्लाई करने वालों में मात्र 11 फ़ीसदी लोगों का चुनाव बतौर शिक्षक होता है, इसका मतलब है कि सबसे ज्यादा उत्साही लोगों का चुनाव होता है। इस पेश के प्रति सम्मान के कारण ही ऐसा संभव होता है कि प्रतिभाशाली छात्र टीचिंग प्रोफ़ेशन में आते हैं।
क्या हैं फ़िनलैंड में बहस के मुद्दे
पार स्टेनबैक कहते हैं कि हमारी शैक्षिक सफलता के मात्र तीन कारण नहीं है। वे बताते हैं कि हाल ही में आई एक रिपोर्ट में बताया गया कि फ़िनलैंड के क्लासरूम बाकी देशों की तुलना में ज्यादा अधिकारवादी है। नवाचार और भागीदारी भले ही नए और फ़ैशनेबल हो लेकिन वे शिक्षण और सीखने की प्रक्रिया (लर्निंग प्रॉसेस) के लिए हानिकारक हो सकते हैं।
फ़िनलैंड में अभी तीन मुद्दों पर काफ़ी चर्चा हो रही है। पहला मुद्दा है विज्ञान और गणित में लड़कियों का प्रदर्शन। 15 साल की उम्र में फ़िनलैंड के लड़कों की इस क्षेत्र में समझ इसी उम्र की लड़कियों से ज्यादा पाई गई। लेकिन यह अंतर बहुत ज़्यादा नहीं है और लड़कियों के लिए सकारात्मक उदाहरण पेश करते हुए इस खाई को भरने की कोशिशें जारी हैं।
वहीं दूसरा मुद्दा इतिहास के घटते हुए महत्व का है जिसके ऊपर बहस हो रही है, यहां लोगों को लगता है कि इतिहास की जानकारी का दायरा 20वीं शताब्दी से भी ज़्यादा व्यापक होना चाहिए।
तीसरा मुद्दा भाषा के प्रशिक्षण से जुड़ा है। सवाल पूछा जा रहा है कि इसके शिक्षण पर शुरुआत से ध्यान क्यों नहीं दिया जाता?
हिंसा पर चिंता
फ़िनलैंड में स्कूलों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्कूलों में बढ़ती हिंसा को लेकर भी चर्चा हो रही है। इस आलेख में वे बताते हैं, “मैंने अपने एक लेख में सुझाव दिया कि कक्षा के अनुशासन को चुनौती देने वाले व्यवहार के ख़िलाफ़ कड़ाई होनी चाहिए। किसी व्यक्ति के बुरे व्यवहार के जो भी कारण हों, ऐसे व्यवहार से बाकी बच्चों के लिए भी सीखने के सकारात्मक माहौल पर असर पड़ता है। दुर्भाग्य से भविष्य से इस तरह की घटनाओं में बढ़ोत्तरी हो सकती है और स्कूलों में मनोचिकित्सकों की आवश्यकता होगी ताकि बिखरे हुए परिवारों से आने वाले बच्चों की मदद की जा सके।”
फ़िनलैंड की स्कूली व्यवस्था काफ़ी विकेंद्रीकृत है। नगरपालिका को राष्ट्रीय पाठ्यचर्या को अपने हिसाब से लागू करने पूरी छूट है। कौन से स्कूल में किस भाषा में पढ़ाई होगी? किस कक्षा से भाषा का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, इस बारे में फ़ैसला करने का अधिकार नगरपालिका को ही होता है। वहीं स्कूल के लिए संसाधनों का निर्धारण करने की जिम्मेदारी स्थानीय राजनीतिज्ञों के हाथ में होती है। लेकिन शिक्षकों के पदों की संख्या और स्कूलों के मानकों में फेरबदल उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। जब कुछ नगरपालिकाओं ने शिक्षा के बजट को निश्चित करने का फ़ैसला किया तो उन्हें शिक्षक संगठनों की तरफ़ से भारी विरोध का सामना करना पड़ा।
शिक्षा और शिक्षक के पेश के लिए सम्मान
यहां के स्कूलों में भी बच्चों को भोजन दिया जाता है, विदेश से यहां आने वाले लोगों को इस योजना पर काफ़ी हैरानी होती है लेकिन फ़िनलैंड के लोगों के लिए यह आम बात है। अपने इस लेख में पार स्टेनबैक लिखते हैं कि बच्चों के स्वास्थ्य के लिए निश्चित तौर पर यह एक अच्छी योजना है। यहां बहस बच्चों को गरम खाना देने पर नहीं है, बल्कि इस बात पर होती है कि खाने में बच्चों को क्या परोसा जाए?
भारत के संदर्भ में शिक्षण के पेश के बारे में कहा जाता है कि यहां वेतन कम है और काम के घंटे ज्यादा है। यहां शिक्षकों को मिलने वाले सम्मान में गिरावट आ रही है। लोगों को लगता है कि शिक्षक स्कूल में काम नहीं करते। शिक्षकों के सामने बहुत सी ऐसी चुनौतियां हैं, जिनका सामना करने में खुद को शिक्षक भी असहाय महसूस करते हैं। मगर उनकी बात कोई सुनने वाला नहीं है।
फिनलैंड में शिक्षा विषय पर अपने आलेख में स्टेनबैक कहते हैं कि फ़िनलैंड के सामने शिक्षा का खर्च उठाने की चुनौती है ताकि वह अपने और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की अपेक्षाओं को पूरा कर सके। आख़िर में वे एक बड़ी मजेदार घटना बताते हैं कि एक बार उनसे एक टीवी रिपोर्टर ने स्थानीय अधिकारियों के लिए एक लाइन में कोई सुझाव देने के लिए कहा तो उनका जवाब था, “शिक्षा और शिक्षक के पेशे के लिए स्थाई सम्मान का भाव विकसित करने मं 150 साल लगते हैं।” जाहिर सी बात है कि टीवी रिपोर्टर उनके जवाब से ख़ुश नहीं हुए।
दोस्तो, ये उपरोक्त लेख agenda.weforum.org पर प्रकाशित आलेख ‘3 reasons why Finland is first for education’ का हिन्दी अनुवाद "अध्यापक की सोच" के माध्यम से आप तक पहुंचा है। आपको ये लेख कैसा लगा ? जरूर टिप्पणी करें । इसके साथ निम्नलिखित लेख पर भी टिप्पणी करें ।
Posted by अधयापाक की सोच
फ़िनलैंड की आबादी मात्र 55 लाख है। लेकिन इस छोटे से देश ने शिक्षा के क्षेत्र में जो कीर्तिमान स्थापित किये हैं, उसका लोहा पूरी दुनिया मानती है। सालों तक फ़िनलैंड ने अपनी सफल शिक्षा व्यवस्था से दुनिया के विभिन्न देशों का ध्यान आकर्षित किया है। इसके साथ-साथ फिनलैंड नेे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने वाले असेसमेंट में साक्षरता और गणित के क्षेत्र में भी अपना दबदबा कायम रखा है।
केवल सिंगापुर और चीन ने प्रोग्राम फ़ॉर इंटरनैशनल स्टूडेंट असेसमेंट (पीआईएसए) में इस देश से बेहतर प्रदर्शन किया है। विभिन्न देशों के राजनीतिज्ञ और शिक्षा विशेषज्ञ फ़िनलैंड का दौरा इसकी सफलता का रहस्य जानने के लिए करते हैं। अभी फ़िनलैंड साल 2020 तक स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था में बड़े बदलाव की तैयारी कर रहा है।
यहां की शिक्षा व्यवस्था में होने वाले आमूल-चूल बदलाव पर दुनियाभर की नज़रें टिकी हैं। इसमें विषय के आधार पर होने वाली पढ़ाई (teaching by subject) की जगह टॉपिक के आधार पर पढ़ाई (teaching by topic) को वरीयता दी जाएगी। हेलसिंकी में यूथ एण्ड एडल्ट एज्यूकेशन के प्रमुख लीसा ने कहा, “यह फ़िनलैंड की शिक्षा में होने वाला एक बड़ा बदलाव होगा। हम अभी इसकी शुरुआत भर कर रहे हैं।” इस बदलाव की पहल फ़िनलैंड की राजधानी हेलसिंकी से हो रही है।
इस शहर के डेवलेपमेंट मैनेजर पैसी सिलैंडेर बताते हैं, “हमें अभी अलग तरह की शिक्षा की जरूरत है जो लोगों को रोज़मर्रा की ज़िंदगी (वर्किंग लाइफ़) के लिए तैयार कर सके। आज के युवा आधुनिक कंप्यूटर्स का इस्तेमाल कर रहे हैं। पहले बहुत से बैंकों में हिसाब-किताब रखने की जिम्मेदारी क्लर्क रखते थे, लेकिन अब चीज़ें पूरी तरह बदल गई हैं। इसलिए हम उद्योगों और आधुनिक समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा में जरूरी बदलाव कर रहे हैं।”
भविष्य की तैयारी
सुबह में एक घंटे इतिहास पढ़ाने, दोपहर बात एक घंटे भूगोल पढ़ाने वाली व्यवस्था में बदलाव लाया जा रहा है। इसकी जगह टॉपिक के आधार पर पढ़ाने वाली व्यवस्था लागू की जा रही है। उदाहरण के तौर पर पर प्रोफ़ेशनल कोर्स में एक किशोर को ‘कैफ़ेटेरिया सर्विसेस’ से जुड़ा पाठ पढ़ाया जा सकता है, जिसमें गणित, भाषा (ताकि विदेशी ग्राहकों को सेवा प्रदान की जा सके), लेखन कौशल और संचार कौशल के तत्व होंगे।
वहीं ज़्यादा एकेडमिक छात्रों को अंतर्विषयक टॉपिक्स पढ़ाए जाएंगे जैसे यूरोपीय संघ, जिसमें अर्थशास्त्र, इतिहास (संबंधित देश), भाषा और भूगोल के तत्व शामिल होंगे। यहां होने वाले बदलावों में बहुत सारी अन्य बातें भी शामिल हैं। इसमें निष्क्रिय ढंग से अध्यापक के सामने बैठने वाले प्रारूप में बदलाव भी शामिल है, जिसमें छात्र पाठ को सुनते हैं और सवाल पूछे जाने का इंतज़ार करते हैं। इसकी बजाय एक ज़्यादा सहयोगात्मक रवैया अपनाया जाएगा जहाँ छात्र छोटे समूहों में बैठकर समस्याओं का समाधान करेंगे (problem solving skill) और साथ ही साथ अपना संचार कौशल (communication skill) भी बेहतर करेंगे।
फ़िनलैंड के शहर हेलसिंकी के एज्यूकेशन मैनेजर मार्जो केलोनेन इस महीने के आख़िर तक शिक्षा में होने वाले व्यापक बदलाव की रूपरेखा पेश करेंगी। उन्होंने कहा, “यह बदलाव केवल हेलसिंकी में नहीं बल्कि पूरे फ़िनलैंड में लागू होंगे।” हमें वाकई शिक्षा के बारे में नए सिरे से सोचने और व्यवस्था को रीडिज़ाइन करने की जरूरत है ताकि हमारे बच्चे भविष्य के कौशल सीख सकें जो आज और भविष्य के लिए जरूरी है।
‘अब वापस नहीं लौट सकते’
यहां बहुत सारे स्कूल हैं जो पुराने तरीके से पढ़ा रहे हैं जो 19वीं शताब्दी की शुरुआत से लाभदायक साबित हुआ था – लेकिन अब जरूरतें पहले जैसी नहीं है और हमको ऐसी व्यवस्था चाहिए जो 21वीं सदी के अनुकूल हो। छात्रों को ‘परीक्षा की फ़ैक्ट्री’ में धकेलने से बेहतर होगा कि हम बच्चों में संचार कौशल और अन्य क्षमताओं का विकास करें।
ऐसा नहीं है कि फ़िनलैंड में इन सुधारों का स्वागत ही हो रहा है। शिक्षकों और संस्था प्रमुखों की तरफ़ से इन बदलाओं पर आपत्ति जताई जा रही है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी किसी विषय विशेष पर लगा दी, अब उनसे अपना नज़रिया बदलने के लिए कहा जा रहा है। इस नई व्यवस्था को अपनाने वाले शिक्षकों के वेतन में थोड़ी बढ़ोत्तरी की जाएगी।
सिलैंडेर कहते हैं कि हेलसिंकी शहर के 70 फ़ीसदी से ज़्यादा स्कूलों के शिक्षकों को नए तरीके अपनाने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है। उन्होंने कहा, “हमने वास्तव में लोगों का माइंडसेट (पूर्वाग्रह) बदलने में कामयाबी पाई है। शिक्षकों की तरफ़ से शुरुआत करवाना और पहला क़दम उठाना वाकई मुश्किल है….लेकिन जिन शिक्षकों ने नए तरीके को अपनाया है उनका कहना है कि अब वे वापस नहीं लौट सकते।”
बदलाव के नतीजे
इस बदलाव को लेकर हुए अध्ययन के शुरुआती आँकड़े दर्शाते हैं कि इस बदलाव से छात्रों को लाभ हो रहा है। इस शिक्षण पद्धति के लागू होने के दो साल बाद छात्रों का ‘आउटकम’ बेहतर हुआ है। वहां के स्कूलों में इस ‘टॉपिक आधारित शिक्षण’ को कम से एक बार लागू करने को कहा गया है। हेलसिंकी में इन सुधारों को तेज़ी के साथ लागू किया जा रहा है और स्कूलों को प्रोत्साहित किया जा रहा है कि नए तरीके से पढ़ाने के लिए वे दो क्लॉस अवश्य लें। फ़िनलैंड के स्कूलों में इन सुधारों को 2020 तक लागू किया जाएगा। इस बीच प्री-स्कूल सेक्टर में भी इन बदलावों को नवाचारी प्रोजेक्ट के माध्यम से अपनाया जा रहा है, प्लेफुल लर्निंग सेंटर (पीएलसी) भी कंप्यूटर गेम इंडस्ट्री के साथ बातचीत कर रही है ताकि छोटे बच्चों के लिए ‘खेल’ के माध्यम से सिखाने के नये तरीके की खोज हो सके।
पीएलसी प्रोजेक्ट के निदेशक ओलावी मेंटानेन कहते हैं, “हम फ़िनलैंड को बच्चों के सीखने से संबंधित खेल का समाधान देने वाले अग्रणी देशों में शामिल करना चाहेंगे।” फ़िनलैंड जब अपनी शिक्षा व्यवस्था में इन बदलावों को जगह दे रहा होगा तो शैक्षिक जगत की निगाहें उसके ऊपर टिकी होंगी। क्या यह अपनी पीसा (पीआईएसए) रैंकिंग को बरकरार रखने में कामयाब होगा? अगर ऐसा होता है तो शैक्षिक जगत की प्रतिक्रिया क्या होगी? यह देखने लायक होगा।
साभारः द इंडिपेंडेंट पर प्रकाशित रिपोर्ट “Finland schools: Subjects scrapped and replaced with ‘topics’ as country reforms its education system” 20/03/2015
Aks Team
हर समाज के चहुंमुखी विकास में शिक्षा की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण होती है, यह तो आप अच्छे तरीके से जानते होंगे। किसी भी राष्ट्र का आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास उस देश की शिक्षा पर निर्भर करता है। शिक्षा के अनेक आयाम हैं, जो राष्ट्रीय विकास में शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हैं। क्या कभी आपने जाना है कि दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक शक्ति के रुप में उभर कर सामने आने वाले चीन में शिक्षा की क्या स्थिति है। तो चलिए, आज हम चीन में स्कूली शिक्षा के बारे में कुछ जानकारी हासिल करते है, और चीनी छात्रों के जीवन के बारें में भी जानते है। सबसे पहले हम इतिहास के पन्नों को पलटते है।
सन 1949 में चीनी जन लोक गणराज्य की स्थापना से पहले चीन में सामंती व्यवस्था थी, जिसमें किसानों,मजदूरों और महिलाओं को शिक्षा से पूरी तरह दूर रखा गया था। नए चीन की स्थापना के बाद सभी लोगों को शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य चीन ने सामने रखा। शिक्षा के क्षेत्र में कई प्रयोग किए गए। यह तो आप जानते ही हैं कि हर प्रयोग हमेशा सफल नहीं होता। इसी तरह चीन में भी 1966 से 1976 की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान शिक्षा के क्षेत्र में जो प्रयोग किए गए, उनका नुकसान उस समय की पीढ़ी को उठाना पड़ा। जब सब स्कूल कॉलिज और विश्वविद्यालय बंद कर दिए गए और यह माना गया कि बुद्दिजीवियों को गांव में जा कर किसानों से शिक्षा हासिल कर जमीनी सच्चाईयों को जानना चाहिए। इस प्रयोग की खामियां भी तुरंत ही सामने आ गईं और इसका परिणाम यह हुआ कि देश में आर्थिक और वैज्ञानिक विकास के लिए जरुरी तकनीशियनों, प्रोफेशनलों, अध्यापकों और पढ़े-लिखे लोगों का अकाल-सा पड़ गया।
लेकिन चीनी शिक्षा में सुधार जारी रहा। तंग श्याओ पिंग के नेतृत्व में चीन ने शिक्षा में उदार दृष्टि से सुधार किए और आज स्थिति यह है कि चीन में सारी जनता तक शिक्षा पहुंचाने का लक्ष्य लगभग पूरा हो गया है।
व्यापक जनता तक शिक्षा पहुंचाने के लिए चीन में कई तरह के स्कूलों की योजना बनाई गई है। यहां प्री-स्कूल, किंडरगार्टन, और ऐसे विद्यार्थियों के लिए भी स्कूल जो देख-सुन नहीं पाते है या जिनमें विशेष योग्यता है। इसके अलावा प्राथमिक स्कूल, सैकेंडरी स्कूल हैं, सैकेंडरी तकनीकी स्कूल, वोकेशनल स्कूल और सैकेंडरी प्रोफेशनल स्कूल आदि भी हैं।
चीन में विशेष स्कूल भी हैं जहां मेरिट के आधार पर छात्रों को भर्ती किया जाता है और इन स्कूलों को सरकार की ओर से अधिक सुविधाएं मिलती हैं और यहां से निकलने वाले छात्रों को अच्छे उच्च स्कूलों में प्रवेश मिलना आसान होता है। लेकिन विशेषज्ञों ने इन स्कूलों की स्थापना पर प्रश्नचिंह भी लगाए हैं और बहुत से प्रांतों ने जैसे छांगछुन,शनयान,शनचन,श्यामन आदि ने विशेष स्कूलों को खत्म कर दिया है। अंग्रेजी की शिक्षा तीसरी कक्षा से दी जाने लगती है। लगभग हर स्कूल में सप्ताह में एक दिन विद्यार्थियों को सामुदायिक कार्य भी करना होता है। विद्यार्थियों को अक्सर समूहों में बंट कर काम करना होता है ताकि वह मिल जुल कर रहना और काम करना सीख सकें। जिम्मेदारी की भावना पैदा करने के लिए स्कूल और कक्षा की आम सफाई का काम छात्रों को ही बारी-बारी से करने को दिया जाता है। 9 साल की अनिवार्य शिक्षा में शहर और गांव में दी जाने वाली शिक्षा में फर्क को कम करने के प्रयास किए गए हैं। गावों में दी जाने वाली शिक्षा में फसल के मौसम को ध्यान में रखा जाता है, छुटिटयों को, कक्षाओं को आगे-पीछे खिसकाया जा सकता है। वोकेशनल और तकनीकी शिक्षा को इसमें शामिल किया गया है।
आम तौर पर स्कूल सुबह 7 बजे शुरु हो जाता है। हर कक्षा 45 मिनट की होती है और खाने की छुटटी के अलावा शाम तक क्लासिस होती है। वैसे तो क्लास केवल पांच दिन होती हैं लेकिन बच्चों को सप्ताह की छुटटी होने पर भी छुटटी नहीं होती। परिवार में केवल एक बच्चा होने के कारण और चीन में तेजी से विकास होने के कारण नौकरी पाने, अच्छी नौकरी पाने के लिए अच्छे स्कूलों में उनके बच्चे शिक्षा पाएं, यह चिंता हर मां-बाप को, विशेषकर शहरों में रहने वाले मां-बाप को ज्यादा रहती है। माध्यमिक स्कूल पहला ऐसा एक पड़ाव है जिसमें प्रवेश पाने के लिए विद्यार्थियों को प्रवेश परीक्षा से गुजरना पड़ता है। हर शहर में कुछ स्कूल अन्य स्कूलों की अपेक्षा अधिक अच्छे माने जाते हैं और उनमें प्रवेश लेने के लिए प्रतियोगिता भी बहुत कड़ी होती है। अच्छे माध्यमिक स्कूल में उनके बच्चे प्रवेश लें, इसके लिए चूहा दौड़ लगी रहती है जिसका खामियाजा बच्चों को झेलना पड़ता है। उनका सप्ताहांत खेल, आराम की जगह निजी कक्षाएं ले लेती है।
ऐसे ही एक बच्चे से हमने पूछा तो उसने बताया:
"शनिवार को मुझे स्कूल तो नहीं जाना पड़ता, लेकिन सुबह 2 घंटे के लिए प्यानों सीखने के लिए जरूर जाना पड़ता है, और दोपहर बाद 1 घंटे के लिए अंग्रेजी की क्लास में जाना होता है, जबकि रविवार को 3 घंटे मैथ्स की क्लास के लिए जाना होता है, और बाकी समय में स्कूल से मिला होमवर्क करना होता है।"
जब हम ने एक बच्चे के माता-पिता से पूछा कि क्या उन्हें नहीं लगता कि वे अपने बच्चे पर बहुत अधिक बोझ डाल रहे हैं तो उन्होंने कहा:
"जीवन में प्रतियोगिता बहुत कठिन है और बच्चा यदि खेल कूद में ही समय बिताता रहा तो आगे जीवन में पिछड़ जाएगा। शहरी जीवन में और तेजी से विकास कर रहे समाज के सामने ऐसी स्थितियां आती ही हैं, जिन्हें अच्छे-बुरे की कसौटी पर रख कर परखना संभव नहीं है। जब हमारा बच्चा कामयाब हो जायेगा, तो इससे बडी खुशी माता-पिता को और क्या हो सकती है"
बच्चों को अच्छे स्कूलों में डालने की चूहा-दौड़ के अलावा एक और बुखार ने शहरी चीनी समाज को अपनी चपेट में ले रखा है। वह है अंग्रेजी सीखने की दौड़। अंग्रेजी सिखाने के स्कूल शहरों में हर जगह देखने को मिल जाएंगे। अंग्रेजी सीख कर रोजगार के अवसर बढेंगे और अच्छी नौकरी मिलेगी, यह सोच कर हर व्यक्ति अंग्रेजी सीखने में लगा है। इस तरह के स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापक बहुत अच्छी तनख्वाह पा रहे हैं, जबकि उनकी तुलना में चीनी अध्यापक जो मेहनत भी ज्यादा करते हैं, उनकी तनख्वाह कम होती है। लेकिन जो बच्चे अब हाई स्कूल में और विश्वविद्यालय में पहुंचे हैं उन के सामने ऐसी समस्या नहीं है,पिछले दस साल से अंग्रेजी पर जो ध्यान दिया गया है उसका परिणाम यह है कि स्कूलों, कॉलिजों और विश्वविद्यालय में पढऩे वाले छात्रों की अंग्रेजी बहुत अच्छी है। हाँ, गांवों में स्थिति जरुर ऐसी नहीं है।
(लेखक: अखिल पाराशर)
प्रस्तुति : अध्यापक की सोच
पिकासो (Picasso) स्पेन में जन्मे एक अति प्रसिद्ध चित्रकार थे। उनकी पेंटिंग्स दुनिया भर में करोड़ों और अरबों रुपयों में बिका करती थीं...!!
एक दिन रास्ते से गुजरते समय एक महिला की नजर पिकासो पर पड़ी और संयोग से उस महिला ने उन्हें पहचान लिया। वह दौड़ी हुई उनके पास आयी और बोली, 'सर, मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ। आपकी पेंटिंग्स मुझे बहुत ज्यादा पसंद हैं। क्या आप मेरे लिए भी एक पेंटिंग बनायेंगे...!!?'
पिकासो हँसते हुए बोले, 'मैं यहाँ खाली हाथ हूँ। मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं फिर कभी आपके लिए एक पेंटिंग बना दूंगा..!!'
लेकिन उस महिला ने भी जिद पकड़ ली, 'मुझे अभी एक पेंटिंग बना दीजिये, बाद में पता नहीं मैं आपसे मिल पाऊँगी या नहीं।'
पिकासो ने जेब से एक छोटा सा कागज निकाला और अपने पेन से उसपर कुछ बनाने लगे। करीब 10 मिनट के अंदर पिकासो ने पेंटिंग बनायीं और कहा, 'यह लो, यह मिलियन डॉलर की पेंटिंग है।'
महिला को बड़ा अजीब लगा कि पिकासो ने बस 10 मिनट में जल्दी से एक काम चलाऊ पेंटिंग बना दी है और बोल रहे हैं कि मिलियन डॉलर की पेंटिग है। उसने वह पेंटिंग ली और बिना कुछ बोले अपने घर आ गयी..!!
उसे लगा पिकासो उसको पागल बना रहा है। वह बाजार गयी और उस पेंटिंग की कीमत पता की। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि वह पेंटिंग वास्तव में मिलियन डॉलर की थी...!!
वह भागी-भागी एक बार फिर पिकासो के पास आयी और बोली, 'सर आपने बिलकुल सही कहा था। यह तो मिलियन डॉलर की ही पेंटिंग है।'
पिकासो ने हँसते हुए कहा, 'मैंने तो आपसे पहले ही कहा था।'
वह महिला बोली, 'सर, आप मुझे अपनी स्टूडेंट बना लीजिये और मुझे भी पेंटिंग बनानी सिखा दीजिये। जैसे आपने 10 मिनट में मिलियन डॉलर की पेंटिंग बना दी, वैसे ही मैं भी 10 मिनट में न सही, 10 घंटे में ही अच्छी पेंटिंग बना सकूँ, मुझे ऐसा बना दीजिये।'
पिकासो ने हँसते हुए कहा,
'यह पेंटिंग, जो मैंने 10 मिनट में बनायी है । इसे सीखने में मुझे 30 साल का समय लगा है। मैंने अपने जीवन के 30 साल सीखने में दिए हैं..!! तुम भी दो, सीख जाओगी..!!
वह महिला अवाक् और निःशब्द होकर पिकासो को देखती रह गयी...!!
एक अध्यापक को 40 मिनट के लेक्चर की जो तनख्वाह दी जाती है, वो इस कहानी को बयां करती है। समाज समझता है कि बस बोलना ही तो होता है अध्यापक को मुफ्त की नौकरी है
Respect your Teachers
प्रेषित : अध्यापक की सोच
साभार : व्हाट्स ऍप्स
प्रेषित :
अध्यापक की सोच
सरदार वल्लभभाई पटेल का संक्षिप्त परिचय
नाम :
सरदार वल्लभभाई झावेरभाई पटेल
जन्म :
31 अक्टूबर 1875 नडियाद, बॉम्बे प्रेसीडेंसी, ब्रिटिश भारत
मृत्यु :
15 दिसम्बर 1950 (उम्र 75) बॉम्बे, बॉम्बे राज्य, भारत
राष्ट्रीयता :
भारतीय
पेशा :
वकालत, राजनीति, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
उपलब्धि :
भारत के लौह पुरुष व भारत का बिस्मार्क के रूप में प्रसिद्द. आज़ादी के बाद विभिन्न रियासतों के एकीकरण में प्रमुख भूमिका निभाई और भारत के और टुकड़े होने से बचाया.
सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता के अदभुत शिल्पी थे जिनके ह्रदय में भारत बसता था। वास्तव में वे भारतीय जनमानस अर्थात किसान की आत्मा थे। स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृहमंत्री सरदार पटेल बर्फ से ढंके एक ज्वालामुखी थे। वे नवीन भारत के निर्माता थे। उन्हे भारत का ‘लौह पुरूष‘ भी कहा जाता है।
स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बडा योगदान खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खण्ड(डिविजन) उन दिनो भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो सरदार पटेल ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी और उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी।
बारडोली सत्याग्रह आन्दोलन की जिम्मेदारी भी वल्लभ भाई पटेल को सौंपी गई थी, जिसे उन्होने सफलता पूर्वक नेतृत्व प्रदान किया। वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में बारडोली सत्याग्रह आन्दोलन का असर सरकार पर हुआ और वायसराय की सलाह पर मुम्बई सरकार ने लगान के आदेश को रद्द करने की घोषणा करते हुए, सभी किसानो की भूमि तथा जानवरों को लौटाने का सरकारी फरमान जारि किया। गिरफ्तार किये गये किसानो को भी रिहा कर दिया गया। इस आन्दोलन की सफलता के उपलक्ष्य में 11 और 12 अगस्त को विजय दिवस मनाया गया। जिसमें वल्लभ भाई पटेल की सूझ-बूझ की भी प्रशंसा की गई। इसी आन्दोलन की सफलता पर एक विशाल सभा में गाँधी जी ने वल्लभ भाई पटेल को सरदार की पदवी से सम्मानित किया, जिसके बाद वल्लभ भाई पटेल, सरदार पटेल के नाम से प्रसिद्ध हुए।
देशी रीयासतों को भारत में मिलाने का साहसिक कार्य सरदार पटेल के प्रयासों से ही संभव हो सका। जब पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को भारत परतन्त्रता की बेड़ियों से आजाद हुआ तो उस समय लगभग 562 देशी रियासतें थीं, जिन पर ब्रिटिश सरकार का हुकूमत नहीं था। उनमें से जूनागढ़, हैदराबाद और कश्मीर को छोडक़र अधिकतर रियासतों ने स्वेज्छा से भारत में अपने विलय की स्वीकृति दे दी। जूनागढ़ का नवाब जूनागढ़ का विलय पाकिस्तान में चाहता था।
नवाब के इस निर्णय के कारण जूनागढ़ में जन विद्रोह हो गया जिसके परिणाम स्वरूप नवाब को पाकिस्तान भाग जाना पड़ा और जूनागढ़ पर भारत का अधिकार हो गया। हैदराबाद का निजाम हैदराबाद स्टेट को एक स्वतन्त्र देश का रूप देना चाहता था इसलिए उसने भारत में हैदराबाद के विलय कि स्वीकृति नहीं दी। यद्यपि भारत को 15 अगस्त 1947 के दिन स्वतन्त्रता मिल चुकी थी किन्तु 18 सितम्बर 1948 तक, हैदराबाद भारत से अलग ही रहा।
इस पर तत्कालीन गृह मन्त्री सरदार पटेल ने हैदराबाद के नवाब की हेकड़ी दूर करने के लिए 13 सितम्बर 1948 को सैन्य कार्यवाही आरम्भ की जिसका नाम ‘ऑपरेशन पोलो’ रखा गया था। भारत की सेना के समक्ष निजाम की सेना टिक नहीं सकी और उन्होंने 18 सितम्बर 1948 को समर्पण कर दिया। हैदराबाद के निजाम को विवश होकर भारतीय संघ में शामिल होना पड़ा।
नि:संदेह सरदार पटेल द्वारा यह 562 रियासतों का एकीकरण विश्व इतिहास का एक आश्चर्य था क्योंकि भारत की यह रक्तहीन क्रांति थी। गाँधी जी ने सरदार पटेल को इन रियासतों के बारे में लिखा था, “रियासतों की समस्या इतनी जटिल थी जिसे केवल तुम ही हल कर सकते थे।” ये कहना अतिश्योक्ती न होगी कि यदि काश्मीर का निर्णय नेहरू जी के बजाय पटेल के हाथ मे होता तो आज भारत में काश्मीर समस्या जैसी कोई समस्या नहीं होती।
भारतीय नागरिक सेवाओं (आई.सी.एस.) का भारतीयकरण कर इसे भारतीय प्रशासनिक सेवाएं (आई.ए.एस.) में परिवर्तित करना सरदार पटेल के प्रयासो का ही परिणाम है। यदि सरदार पटेल को कुछ समय और मिलता तो संभवत: नौकरशाही का पूर्ण कायाकल्प हो जाता। उनके मन में किसानो एवं मजदूरों के लिये असीम श्रद्धा थी। वल्लभभाई पटेल ने किसानों एवं मजदूरों की कठिनाइयों पर अन्तर्वेदना प्रकट करते हुए कहा:-
दुनिया का आधार किसान और मजदूर पर हैं। फिर भी सबसे ज्यादा जुल्म कोई सहता है, तो यह दोनों ही सहते हैं। क्योंकि ये दोनों बेजुबान होकर अत्याचार सहन करते हैं। मैं किसान हूँ, किसानों के दिल में घुस सकता हूँ, इसलिए उन्हें समझता हूँ कि उनके दुख का कारण यही है कि वे हताश हो गये हैं। और यह मानने लगे हैं कि इतनी बड़ी हुकूमत के विरुद्ध क्या हो सकता है ? सरकार के नाम पर एक चपरासी आकर उन्हें धमका जाता है, गालियाँ दे जाता है और बेगार करा लेता है।
किसानों की दयनीय स्थिति से वे कितने दुखी थे इसका वर्णन करते हुए पटेल ने कहा: –
“किसान डरकर दुख उठाए और जालिम की लातें खाये, इससे मुझे शर्म आती है और मैं सोचता हूँ कि किसानों को गरीब और कमजोर न रहने देकर सीधे खड़े करूँ और ऊँचा सिर करके चलने वाला बना दूँ। इतना करके मरूँगा तो अपना जीवन सफल समझूँगा”
कहते हैं कि यदि सरदार बल्लभ भाई पटेल ने जिद्द नहीं की होती तो श्री राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति पद के लिए तैयार ही नहीं होते। जब सरदार वल्लभभाई पटेल अहमदाबाद म्युनिसिपेलिटी के अध्यक्ष थे तब उन्होंने बाल गंगाघर तिलक का बुत अहमदाबाद के विक्टोरिया गार्डन में विक्टोरिया के स्तूप के समान्तर लगवाया था। जिस पर गाँधी जी ने कहा था कि-
“सरदार पटेल के आने के साथ ही अहमदाबाद म्युनिसिपेलिटी में एक नयी ताकत आयी है। मैं सरदार पटेल को तिलक का बुत स्थापित करने की हिम्मत बताने के लिये उन्हे अभिनन्दन देता हूं।”
भारत के राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम में अक्षम शक्ति स्तम्भ थे। आत्म-त्याग, अनवरत सेवा तथा दूसरों को दिव्य-शक्ति की चेतना देने वाला उनका जीवन सदैव प्रकाश-स्तम्भ की अमर ज्योति रहेगा। सरदार पटेल मितभाषी, अनुशासनप्रिय और कर्मठ व्यक्ति थे। उनके व्यक्तित्व में विस्मार्क जैसी संगठन कुशलता, कौटिल्य जैसी राजनीतिक सत्ता तथा राष्ट्रीय एकता के प्रति अब्राहम लिंकन जैसी अटूट निष्ठा थी।
अपने अदम्य उत्साह, असीम शक्ति एवं मानवीय समस्याओं के प्रति व्यवहारिक दृष्टिकोण से उन्होंने निर्भय होकर स्वतंत्र राष्ट्र की प्रारम्भिक कठिनाइयों का समाधान अद्भुत सफलता से किया। राष्ट्र के प्रति प्रेम एवं योगदान के ही कारण आज विश्व के श्रेष्ठ राजनीतिज्ञों की श्रेणी में सरदार पटेल को भी याद किया जाता है। विश्व मानचित्र में उनका अमिट स्थान है।
सरदार पटेल मन, वचन तथा कर्म से एक सच्चे देशभक्त थे। वे वर्ण-भेद तथा वर्ग-भेद के कट्टर विरोघी थे। वे अन्तःकरण से निर्भीक थे। अपूर्व संगठन-शक्ति एवं शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता रखने वाले सरदार पटेल, आज भी युवा पीढी के लिये प्रेरणा स्रोत हैं। कर्म और संघर्ष को वे जीवन का ही एक रूप समझते थे।
भारत के देशभक्तों में एक अमूल्य रत्न सरदार पटेल को भारत सरकार ने सन 1991 में ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया आज सरदार वल्लभ भाई पटेल हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा। 31 अक्टूबर, उनकी जयंती पर अपनी भावांजली के साथ शत् शत् नमन करते हैं।
लेखक : अनिता शर्मा
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अनिता जी दृष्टिबाधित लोगों की सेवा में तत्पर हैं।
शिक्षक-प्रशिक्षणों एवं विद्यालयों में भ्रमण के दौरान मैंने पाया है कि लगभग प्रत्येक स्कूल में विलोम, तत्सम-तद्भव, पर्यायवाची एवं उच्चारण में समान शब्दों के रटवाने पर शिक्षकों का बहुत जोर रहता है न कि बच्चों में एक सामान्य समझ विकसित करने पर। इसका परिणाम यह होता है कि बच्चे अक्सर भ्रम का शिकार हो जाते हैं। वे इन शब्दों के आपसी अन्तर और उनकी प्रकृति को नहीं समझ पाते। हालाँकि कुछ नवाचारी शिक्षक इस प्रयास में रहते हैं कि बच्चों में समझ बनाई जाए, लेकिन ऐसे शिक्षकों की संख्या बहुत थोड़ी होती है।
कई शिक्षकों ने इस समस्या को मेरे सामने रखा और सरल उपाय चाहा जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें। मैंने सोचा कि क्यों न बच्चों से विलोम और पर्यायवाची शब्दों पर नए तरीकों और गतिविधियों के माध्यम से बात की जाए। इस हेतु कार्ड अच्छा विकल्प हो सकते हैं, ऐसा सोचकर मैंने घर पर उपलब्ध बेकार वस्तुओं से विलोम शब्दों और पर्यायवाची शब्दों के कार्ड बनाने का निश्चय किया।
मैंने वैवाहिक निमंत्रण पत्र, बाजार से लाए गए सामानों के पैकेट, पुरानी कापियों के मोटे चिकने कवर एकत्र किए। उनमें से 2 गुणा 1 इंच के एक समान टुकड़े काट लिए। इनकी एक सतह चिकनी और सफेद थी तो दूसरी लगभग खुरदुरी। सफेद चिकनी सतह पर लिखना उपयुक्त लगा। कई रंग के स्केच पेन लिए। पहले विलोम शब्द लिखना प्रारम्भ किया। प्रयास किया कि शब्द और उसका विलोम एक ही रंग के पेन से लिखूँ ताकि बच्चों के लिए समझना आसान हो सके।
कुछ दिनों पूर्व एक विद्यालय में 4 एवं 5 की सम्मिलित कक्षा में मैंने उनकी भाषा की पाठ्य पुस्तक ‘कलरव‘ के विभिन्न पाठों से बच्चों द्वारा ऐसे शब्दों की एक सूची बनवाई थी। ऐसे 70-80 शब्द और उनके विलोम के कार्ड मैंने तैयार किए। मैंने पानी, कमल, बादल, समुद्र, घर, बिजली, जंगल, पेड़, देवता, इन्द्र, सूर्य, पृथ्वी, आग, आकाश, दिन, कपड़ा, नेत्र, धनुष, तालाब, नदी, फूल आदि शब्दों के पर्यायवाची कार्ड भी बनाए। कार्ड बनाते समय यह ध्यान रखा कि किसी शब्द के सभी पर्यायवाची एक ही रंग से लिखे जाएँ ताकि पहचान सहज सम्भव हो।
कार्ड तैयार करने में कक्षा नौ में अध्ययनरत मेरी बेटी संस्कृति ने भी सुझाव दिए और सहयोग किया। लगभग दो घंटे की मेहनत के बाद मेरे पास बिना कोई धन खर्च किए कुछ कार्ड तैयार हो गए। मैं रोमांचित था और एक नए अनुभव से गुजरने को उत्सुक भी।
अक्टूबर का आखिरी सप्ताह था। मेरा एक प्राथमिक विद्यालय जाना हुआ। रात में बारिश होने के कारण वातावरण में ठंड बढ़ गई थी। इस कारण उस दिन विद्यालय में बच्चों की संख्या कुछ कम थी।
मैं कक्षा 4 एवं 5 के बच्चों के साथ विलोम एवं पर्यायवाची शब्दों पर काम करने वाला था। मैं सीधे कक्षा 5 में चला गया, 14 बच्चे आए थे। गणित का शिक्षण चल रहा था। बच्चे ब्लैकबोर्ड में शिक्षिका द्वारा हल किए गए ‘भाग‘ के सवाल को अपनी कॉपियों में उतार रहे थे, जो 3 अंकों के भाजक पर आधारित थे। कक्षा में घूमकर देखा तो बच्चे बिना किसी समझ एवं जिज्ञासा के ब्लैकबोर्ड में हल किए गए सवाल को ज्यों का त्यों उतारने में व्यस्त थे और कई सारे अंक इधर-उधर हो रहे थे।
मैंने शिक्षिका से प्रश्न किया कि क्या बच्चों को भाग की संक्रिया की समझ है और क्या वे दो अंकीय भाजक वाले सवाल हल करना सीख गए हैं? शिक्षिका का कहना था कि इन्हें नहीं आता है, लेकिन मुझे कोर्स पूरा करना है। मैं सोच रहा था कि बच्चे सवाल करने के बाद भी भाग की गणितीय प्रकिया से अनजान बने रहेंगे और इस कमी को लेकर अगली कक्षा में पहुँच जाएँगे। बच्चों के सवाल उतार लेने के बाद शिक्षिका मुझे बच्चों के बीच छोड़ चली गईं। मैंने बच्चों से कक्षा 4 में चलने को कहा और 3 के बच्चों को भी बुला लिया। अब बच्चों की सम्मिलित संख्या 29 पहुँच गई जो पर्याप्त थी।
मैंने शिक्षिकाओं से कहा कि यदि वे चाहें तो कक्षा में पीछे कुर्सी डाल कर बैठ सकती हैं। यह सुनकर प्रशिक्षु शिक्षिका पीछे बैठ गईं और प्रधान शिक्षिका एवं शिक्षामित्र ने बाहर बरामदे में बैठना उचित समझा। मैं इस विद्यालय में दूसरी बार आया था। पिछली भेंट में मैंने बच्चों से उनके नाम जाने थे और अपना परिचय दिया था।
मैंने बच्चों से किसी के द्वारा मेरा परिचय कराने को कहा लेकिन एक भी बच्चा खड़ा नहीं हुआ। मैंने उनसे उनका परिचय देने को कहा तो भी कोई नहीं बोला। मुझे याद आ रहा था कि पिछली बार भी ऐसा ही हुआ था। तब मैंने शिक्षिकाओं को कहा था कि प्रार्थना स्थल पर या उनकी अपनी कक्षा में बच्चों से प्रतिदिन परिचय देने की गतिविधि करवाई जाए। जिसमें वे अपना स्वयं का और अपने किसी एक साथी का परिचय दें। साथ ही बच्चों से उनके परिवेशीय ज्ञान के आधार पर खूब बातचीत की जाए। ताकि बच्चे अपने विचारों को अभिव्यक्त करना सीख सकें।
लेकिन लगता है कि पिछले 40 दिनों में कुछ भी काम नहीं किया गया था अन्यथा बच्चे कुछ तो बोलते। खैर, मैंने पुनः अपना परिचय दिया। फिर एक गतिविधि की जिसमें सभी बच्चों को मेरे साथ हाव-भाव से एक गीत गाते हुए प्रदर्शन करना था-
रज्जू के बेटों ने मिट्टी के ढेरों में
कद्दू के कई बीज बोए बोए बोए।
रात का अँधेरा था, चूहों का डेरा था
दो चूहे बीज खाने, गए, गए, गए।
सुबह को न बीज थे, न मिट्टी के ढेर थे
दो चूहे मोटे होकर, सोए, सोए, सोए।
बच्चों ने गाने का खूब मजा लिया। बच्चों की माँग पर इसे दो-तीन बार गाया और भावानुसार अभिनय किया गया। गतिविधि पूरी होने के बाद मैंने कहा कि कद्दू क्या है और इसका क्या उपयोग होता है?
एक लड़का बोला, ‘गोल गोल इतना बड़ा (हाथ से आकार बनाते हुए)। इसकी सब्जी बनती है। उसे पौल (छोटे-छोटे टुकड़ों में काटना) लेते हैं और छौंक देते हैं, तेल, मसाला, पानी डाल देते है।’ लड़के की बात को काटते हुए अचानक प्रधान शिक्षिका बोलीं, ‘कददू की सब्जी में पानी नहीं डाला जाता, तुम लोगों को कुछ भी नहीं आता है।’
इस पर मैंने उन्हें चुप रहने का संकेत करते हुए कहा कि कद्दू की सब्जी बनाने के अलग-अलग तरीके हो सकते हैं। सम्भव है उस बच्चे के घर में कद्दू की सब्जी बनाने में पानी डाला जाता हो तो वह उसका अनुभव है। फिर मैंने कहा कि गीत में कद्दू के बीज की जगह दूसरी किन सब्जियों के बीज ले सकते हैं। एक-एक कर बच्चे बोलने लगे लौकी, भिंडी, तरोई, सेम, चचींड़ा, रेरुवा, कुम्हड़ा, टमाटर, बैंगन आदि के बीज।
फिर उन सब सब्जियों के पौधों-बेलों, रंग, आकार, स्वाद, उपयोग और उनके उगने के मौसम के बारे में चर्चा हुई। बच्चों को कौन-सी सब्जी पसन्द है और क्यों, इस पर भी बच्चों ने अपनी भाषा-बोली में खूब मजेदार बातें कहीं। बच्चों का बोलना जारी था। उनकी झिझक-संकोच दूर हो चुका था।
समय तेजी से बीत रहा था। विलोम और पर्यायवाची शब्दों पर अभी बात शेष थी। अब मैंने उस पर चर्चा करना उचित समझा। मैंने बच्चों से पर्यायवाची और विलोम शब्दों के बारे में पूछा। बच्चों ने कुछ विलोम शब्द तो रटे हुए थे पर पर्यायवाची शब्दों से बिल्कुल अनजान थे। शिक्षिका ने कहा कि इनके बारे में अभी बताया नहीं गया है। अगले सप्ताह बताने वाले हैं।
मेरे सामने संकट आ गया कि अब इस विषय को बच्चों के सामने कैसे रखूँ, जबकि बच्चे उस पर कुछ जानते ही नहीं। लेकिन फिर लगा यह तो और भी अच्छा है कि बिल्कुल नए सिरे से बातचीत की शुरुआत की जाए। पहले विलोम शब्दों पर चर्चा करना उचित लगा क्योंकि बच्चों ने कुछ विलोम शब्दों के युग्म याद किए हुए थे जैसे काला-सफेद, आकाश-पाताल, लम्बा-छोटा आदि।
मैंने विलोम शब्दों के 15 जोड़ी कार्ड निकाले और बच्चों से एक कार्ड चुनने को कहा। मैं बच्चों के पास गया। उन्होंने एक-एक कार्ड ले लिया। सबको कार्ड देने के बाद एक कार्ड बचा रह गया जिसे मैंने अपने पास रख लिया। बच्चे कार्ड पढ़ने लगे थे। अब मैंने कहा कि कार्ड में लिखे शब्द का विलोम खोजकर जोड़ा बना कर एक साथ बैठना है। इतना सुनते ही कक्षा में धमाचौकड़ी मच गई और बच्चे अपने शब्द का विलोम ढूँढ़कर जोड़ी बनाने की प्रक्रिया में जुट गए।
उनमें उत्साह था और उनकी खुशी की चमक चेहरों पर नाच रही थी। कुछ ही देर देर में विलोम शब्दों के आठ युग्म मेरे सम्मुख उपस्थित थे। शेष बच्चे अभी भी अपने विलोम शब्द खोज रहे थे। एक कार्ड मेरे पास था जिस पर लिखे शब्द ‘अग्रज’ को मैंने दो-तीन पर पढ़ा, पर मेरे पास कोई नहीं आया। मुझे समझते देर नहीं लगी कि उन बच्चों को अब थोड़ी मदद की जरूरत है।
मैंने शब्द और उसका विलोम एक ही रंग के स्केच पेन से लिखे थे तो मैंने कहा कि जिनके कार्डों के रंग समान हों वे एक साथ जोड़ी बना लें। तुरन्त ही जोड़ियाँ बन गईं, लेकिन एक बच्चा बचा रह गया। मैंने उसे शब्द पढ़ने को कहा। पर वह पढ़ न सका। एक लड़की ने उसका शब्द पढ़ा- अनुज। कुछ बच्चे बोल पड़े, ‘अनुज का विलोम शब्द होगा अग्रज जो कि आपके पास है।’ इस गतिविधि को एक बार और किया गया। मैंने कुछ विलोम शब्द युग्म हटाकर नए मिला दिए। इस बार बच्चों ने जल्दी और बेहतरी के साथ काम पूरा किया।
अब पर्यायवाची शब्दों की चर्चा की बारी थी। मैंने बच्चों के परिवेशीय ज्ञान का आधार लेकर बात प्रारम्भ की कि हम सबके कई नाम होते हैं। एक नाम वह जो स्कूल के रजिस्टर में लिखा होता है, दूसरा घर का नाम, दोस्तों के बीच का नाम, ननिहाल में पुकारे जाने वाला नाम आदि। जैसे स्कूल के रजिस्टर में मेरा नाम प्रमोद दीक्षित लिखा है लेकिन घर में सब लोग राजा कहते हैं। ननिहाल में राजू और दोस्त नन्ना जी कहकर बुलाते हैं। तो राजा, राजू, नन्ना जी शब्द मेरे अपने नाम के पर्यायवाची हैं। वैसे यह बहुत सटीक उदाहरण नहीं था पर बच्चों की समझ अनुसार मुझे उचित लगा।
फिर मैंने बच्चों से पूछा, तुम्हारे कितने नाम हैं। मनोज बोला कि उसके घर का नाम लाला, ननिहाल का नाम मिट्ठू है। संदीप बोला घर में गोलू और ननिहाल में चिंटू पुकारते हैं। रानी बोली घर में काजल, मौसी के यहाँ गौरी और ननिहाल में दिव्या कहते हैं। इस तरह लगभग एक दर्जन बच्चों ने अपने नाम बताए। उनके बताए नामों को मैं ब्लैकबोर्ड में उनके स्कूली नाम के आगे लिखता जा रहा था। अब तो हर बच्चा अपना नाम ब्लैकबोर्ड में अंकित देखने का इच्छुक था। मुझे लगा कि अब बच्चों में पर्यायवाची शब्दों की एक मोटी सामान्य समझ बन गई है। इस समझ को तराशने और पर्यायवाची शब्दों के अर्थ की दृष्टि से और नजदीक ले जाने के लिए मैंने एक अन्य उदाहरण लेना उचित समझा।
अपनी शर्ट की ओर संकेत करके मैंने बच्चों से जानना चाहा कि यह क्या है? एक ने कहा सल्ट (शर्ट) है, दूसरे ने बुसकैट (बुशशर्ट), तीसरे ने कमीज, चौथे ने कुरती और एक अन्य ने मिरजई कहा। एक और उदाहरण के रूप में स्कूल के बगल में स्थित तालाब की ओर इशारा करते हुए पूछा कि वह क्या है? बच्चों से उत्तर में ताला, तलैया, पोखर शब्द मिले। बच्चे बिल्कुल सही दिशा में बढ़ रहे थे। सभी के उत्तरों को मिलाकर मैंने कहा कि जिन शब्दों से एक ही वस्तु का बोध हो तो वे सब शब्द उस वस्तु के पर्यायवाची या समानार्थी शब्द कहलाते हैं। बच्चों के चेहरों में सन्तुष्टि के भाव थे और मैं उनमें पर्यायवाची शब्दों की बनती एक समझ को अनुभव कर रहा था।
अब मैंने पर्यायवाची शब्दों के 4 कार्ड निकाले। प्रारम्भ में पानी, कमल, बादल और समुद्र ऐसे चार शब्द लिए। चार बच्चों को बुलाकर कार्ड चुनने को कहा। वे एक-एक कार्ड लेकर अपनी जगह बैठ गए। फिर इन शब्दों के पर्यायवाची कार्ड निकालकर मेज पर रख दिया। बच्चे आए और एक-एक कार्ड उठाकर अपनी जगह चले गए। सब अपने कार्ड के साथ दूसरों के कार्ड भी पढ़ रहे थे। एक-दो बच्चे ऐसे भी थे जो कार्ड में लिखा शब्द नहीं पढ़ पा रहे थे, उनकी मदद दूसरे बच्चों ने की। कक्षा में थोड़ा शोरगुल होने लगा था। क्योंकि एक-दूसरे का कार्ड पढ़ने के लिए बच्चे कक्षा में इधर-उधर दौड़ लगा रहे थे।
मैंने कहा कि पानी वाला कार्ड किसके पास है तो एक लड़की सामने आ गई। अच्छा अब बताओ कि पानी के पर्यायवाची शब्दों के कार्ड किनके पास हैं? कोई हलचल नहीं। मुझे ध्यान आया कि यह तो इन्हें कभी बताया ही नहीं गया। इसलिए थोड़ी मदद की जरूरत है। मैं बोला कि जल, नीर, वारि, अम्बु लिखे कार्ड जिनके पास हों वे सामने आ जाएँ। फिर शोरगुल होने लगा। क्योंकि बच्चे अपने-अपने कार्ड पढ़ने-पढ़वाने लगे। कुछ ही देर में चार बच्चे अपने कार्डों के साथ उस लड़की के साथ खड़े हो गए। सबने अपने कार्डों में लिखे शब्दों को दो-तीन बार पढ़ा जिसे अन्य बच्चों ने दुहराया। मैं खुश था कि बच्चे पानी के पर्यायवाची समझने की कोशिश कर रहे थे। कमल के पर्यायवाची के लिए मैंने मदद करते हुए कहा कि अभी जो पानी के पर्यायवाची शब्द आए थे उनके अन्त में यदि ज अक्षर लगा दिया जाए तो वे कमल के पर्यायवाची शब्द बन जाएँगे। इतना कहने पर सब अपने कार्ड पढ़ने लगे और अपने आप एक समूह के रूप मे सामने आ गए जिनके शब्द थे कमल, जलज, नीरज, वारिज, अम्बुज। बच्चे बिना किसी दबाव, भय, डर एवं तनाव के खेल-खेल में भाषा का एक पाठ मस्ती से सीख-समझ रहे थे।
कक्ष में पीछे बैठी शिक्षिका ने आग्रह किया कि बादल और समुद्र के पर्यायवाची वह निकलवाना चाहतीं हैं। मुझे अच्छा लगा कि वह रुचि ले रही हैं। उन्होंने यह काम सुन्दर तरीके से पूरा किया। चारों शब्दों के पर्यायवाची खोजने की गतिविधि कई बार की गई। बच्चे पूरी तरह समझ चुके थे। हालाँकि मुझे लगा कि यदि कार्ड का आकार एवं शब्दों की लिखावट और बड़े होते तो बेहतर होता। कक्षा का समय पूरा हो चुका था।
मैंने देखा कि कक्षा 4 एवं 5 के बच्चे आपस में पर्यायवाची शब्दों की गतिविधि का खेल खेलते हुए चहक रहे थे। मुझे विश्वास है कि इस गतिविधि से अर्जित विलोम एवं पर्यायवाची शब्दों का ज्ञान कभी विस्मृत नहीं होगा क्योंकि इसे उन्होंने स्वयं करके सीखा था। बच्चों में उमंग, उत्साह और ऊर्जा का एक सतत प्रवाह हिलोरें लेता रहता है।
लेखक : प्रमोद दीक्षित ‘मलय’ : ब्लाक संसाधन केन्द्र, नरैनी जिला बाँदा (उत्तर प्रदेश) में सह-समन्वयक हिन्दी भाषा के पद पर कार्यरत। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक बदलावों, आनन्ददायी शिक्षण एवं नवाचारी मुद्दों पर सतत् लेखन एवं प्रयोग। सम्पर्क - 79/18, शास्त्री नगर , अतर्रा पिनकोड - 210201, जिला-बाँदा, उ0प्र0। मोबा - 09452085234 ई-मेल: pramodmalay123@gmail.com
प्रस्तुति: अध्यापक की सोच