रविवार, 1 अक्टूबर 2017

कहानियों का जादू बच्चों पर कैसे चले ?

अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन पौड़ी, उत्‍तराखण्‍ड के सभागार में 23 सितम्‍बर,2017 शनिवार की शाम ‘शिक्षण में कहानियों का सन्दर्भ’ पर चर्चा के नाम रही। प्रख्यात रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, शिक्षा के अध्येता, बालमन के जानकार, छायाकार, फिल्म निर्माता और साहित्यकर्मी सुभाष रावत ने कहानियों के संदर्भ में बेहद कारगर और छुई-अनछुई बातों को रेखांकित किया।

एक घण्टा बत्तीस मिनट की अपनी बातचीत की शुरुआत करते हुए सुभाष जी ने कहा कि यह बात सही है कि जब हम कहानी सुना रहे होते हैं तो बच्चे स्वतः ही अपने मन-मस्तिष्क में पात्रों के चित्र बना लेते हैं। वह अपने सन्दर्भ से कहानी के मन्तव्य को भी समझ रहे होते हैं। सुभाष रावत जी ने जानना चाहा कि क्या हम ऐसी कहानियों के नाम ले सकते हैं जो यहाँ प्रत्येक ने पढ़ी या सुनी हो।

हालाँकि यह एक छोटी सी बैठक की रपट है। पर बच्‍चों के बीच कहानियाँ क्‍या करती हैं, इस पर सरल शब्‍दों में अनुभवजन्‍य बातें कही गई हैं। जिन्‍हें बच्‍चों के बीच कहानियों का सार्थक उपयोग करना भाता है, उनके लिए यहाँ बताई गई बातें काम की हो सकती हैं।


कुछ कहानियाँ अधिकतर लोगों ने पढ़ी थीं। लेकिन जो कहानियाँ उपस्थित सभी श्रोताओं ने पढ़ी-सुनी थीं, उन्हें एक बार रेखांकित किया गया। प्रमुख कहानियाँ निकलकर आईं-‘अंगूर खट्टे हैं’, ‘अली बाबा चालीस चोर‘, ‘कफन‘, ‘प्यासा कौआ‘, ‘अलादीन का चिराग‘, ‘हार की जीत‘, ‘खरगोश और कछुआ‘, ‘शेर और चूहा‘, ‘ईदगाह‘ ‘कबूतर और बहेलिया‘, ‘बन्‍दर और मगरमच्छ‘, ‘सत्यवान और सावित्री‘ ।

सुभाष जी ने कहा कि हम इसमें से एक कहानी पर चर्चा करते हैं। चर्चा से पहले इसका एक-एक वाक्‍य बोलकर फिर से पूरा करते हैं। कहानी का चयन किया गया-‘सत्यवान और सावित्री‘। इस कहानी से सबने एक-एक वाक्य बोला। लेकिन कहानी आधी-अधूरी ही सामने आई।

सुभाष जी ने कहा कि इतनी लोकप्रिय और सभी के द्वारा घोषित पढ़ी गई कहानी भी समय के साथ-साथ छूट-सी गई है। होता यह है कि कई बार हम उसे नए सन्दर्भों के साथ सुन रहे होते हैं या सुना रहे होते हैं। कई बार कहानी का खास हिस्सा छूट जाता है या बढ़ा दिया जाता है।
उन्होंने कहा कि बेहद छोटे बच्चे तो एक कहानी को बार-बार सुनना चाहते हैं। वह उसमें कोई बदलाव भी नहीं चाहते। लेकिन कहानियाँ ही हैं जो बच्चों में कल्पनाशीलता जगाती हैं। उनकी समझ को विस्तार दे रही होती हैं।

इसके बाद सुभाष जी ने कहानीकार मुकेश नौटियाल  की कहानी ‘सावधान सरूली आ रही है’ को पढ़कर सुनाया। कहानी सुनकर उपस्थित सहभागियों को जो महसूस हुआ उसे व्यक्त करने का अनुरोध किया। सहभागियों ने बहुत सी बातें कहानी के सन्दर्भ में कही। कहानी में समाज का यथार्थ। मजहबी अन्तर, शोषण, विद्रोह, हकीकत, पहाड़ और मैदान का विवरण, यात्रा, भूली-बिसरी यादें जैसी बातें सामने आईं।

सुभाष जी ने कहा कि यह कहानी ही है जो इतना विस्तार दे देती है। हम सबका अपना-अपना नज़रिया होता है। हम अपने नजरिए, अपने आसपास के अनुभवों और देखे-भोगे गए जीवन के साथ कहानियों को जोड़ते हैं। यह हम पर निर्भर है कि हम कहानियों को कैसे देखते हैं?
उन्होंने जोड़ा कि यह काम शिक्षक बेहतर ढंग से कर सकते हैं। उन्हें करना चाहिए। एक अध्यापक का कक्षा में मुस्कान के साथ प्रवेश बहुत बड़ा बदलाव करता है। हमारे मूड को बच्चे भाँप लेते हैं।

गिजूभाई का उल्लेख करते हुए सुभाष जी ने कहा कि कहानियाँ आनन्‍द देती है। कितना अच्छा हो कि विद्यालय कहानियों का अड्डा हो। बच्चे अभी जानना चाहते हैं। खूब सुनना चाहते हैं। पर आज कहानियाँ कौन सुनाना चाहता है? कहानियों का जादू यदि समझना है तो गिजूभाई को पढ़ना होगा।

सुभाष जी ने बड़ी सरलता और सहजता में बातचीत के लहजे में अनेक बातें रखीं। मुख्य बातों को बिन्दुवार इस तरह समझा जा सकता है :

कहानी में आनन्द जरूरी है। लेकिन हमें कहानी के माध्यम से यह काम भी करना होता है कि वह समाज का प्रतिबिम्ब भी बने। समाज के सरोकारों से भी जुड़ी हुई हो। समाज की पीड़ा के दर्शन भी कहानियों में हो।समाज में हमारा अपना अनुभव होता है। हमारा एक नजरिया बन गया होता है। कहानियाँ हमारे नजरियों का भी प्रतिनिधित्व कर रही होती हैं और हमारे नजरिये को बदलने का काम भी कर रही होती है।बच्चे के लिए कहानी मात्र मनोरंजन नहीं है। बच्चा कहानी सुनकर अपने अनुभव को बढ़ा रहा होता है। बच्चा कहानी को जीता है। वह कहानी को मात्र कोरी कल्पना नहीं समझता।हम बड़े ही समझ लें कि कहानियों का असर क्या है। कहानियों में हम बड़ों की दिलचस्पी तो हो। तभी तो हम कहानियाँ सुना सकेंगे।हमारे अनुभव भी तो हमारी कहानियाँ ही हैं। जब हम कह रहे होते हैं कि उसकी कहानी बड़ी अजीब है। या ये कहते हैं कि यदि मैं अपनी कहानी सुनाने बैठूँ तो रात हो जाएगी। यह सब क्या है! कहानी ही तो है। हमें सुनाने लायक कहानियाँ खोजनी होगीं। ढूँढनी होगीं। कहानियों को एकत्र करना होगा।अध्यापक खिलंदड़ हो। अध्यापक को यदि खेलने में दिक्कत है तो वह पूर्ण अध्यापक नहीं है। यदि उसे खेलने में आनन्‍द नहीं आता तो वह कैसा अध्यापक है।यदि अध्यापक कहानियों की बात न करें तो बच्चों में कैसे वर्णन क्षमता बढ़ेगी? बच्चों में कहानी की पूर्ति कैसे होगी?अध्यापक के जीवन में खेल जरूर शामिल होना चाहिए। बच्चों के वास्‍ते खेलना भी एक बड़ा काम है।अध्यापक को चाहिए कि वह बच्चों से पूछें कि वह क्या आज क्या खेलें। कितना अच्छा हो कि हम यह कहें कि यदि जिस दिन नहीं खेले तो वह दिन बेकार गया। क्या ऐसा संभव है?कहानियों को भी हम रोजमर्रा का हिस्सा बनाएँ। कहानियाँ बच्चों को किताबों की ओर ले जाती है। कहानियों की किताबें दिलचस्प बातें लेकर आती हैं। यह बात कहाँ से आएगी? बच्चों में यह ललक जगा दी जाए कि किताबों में और भी कहानियाँ हैं। बच्चे बड़ों के सुनाए जाने की प्रतीक्षा क्यों करें वह स्वयं किताबें न पढ़ लें। यह कब होगा? तभी न जब हम कहानियों से यह सिलसिला बनाएँगे।बिना लिखे-पढ़े ही बच्चे में सृजनात्मकता है। हम उन्हें अवसर देंगे तो यह और बढ़ेगी।बच्चों को रचनाशील न होने देना भी उनके साथ एक तरह का अत्याचार है।कहानियाँ सामूहिकता और सहयोग के भाव भी जगाती हैं। यही कारण है कि हजारों साल पहले आदमी और दूसरे कीड़ों में कोई अन्तर नहीं था। पर आज हम मनुष्य यहाँ धरती में राज कर रहे हैं। मनुष्य की सामूहिकता ने शायद उसे महाबली बनाया। सामूहिकता तो मधुमक्खियों में भी है पर वहाँ लोकतंत्र नहीं है। मुखरता नहीं है। गलत बात का विरोध करने की समझ नहीं है।मनुष्य कहानियों पर भरोसा करता है। कहानियों में कल्पना और वास्तविकता का गहरा रिश्ता है। कैसे कहानी हमें एक-दूसरे से जोड़ती है। कैसी कहानियों को हम आम बनाएँ।सोचने-समझने की ताकत देने वाली कहानियाँ हैं या गोरे और काले में और दूरियाँ बढ़ाने वाली कहानियाँ है। हमेशा राजकुमार ही राजकुमारी को बचाता है। ऐसा कब तक चलेगा?कहानी वह है जो विश्वास कराती है। हम में विश्वास भरती हैं।ऐसा क्यों है कि भाषा की कक्षा है और वहाँ बातचीत नहीं हो रही है। क्यों? बच्चों की बातचीत हमें शोर क्यों लगती है?कहानियों का जादू यदि हमारी समझ में आ जाए तो बहुत सारी बातें अनायास होने लगती हैं। इस बात को जानना जरूरी है कि हम कहानी क्यों सुनाएँ? यह हमें पता हो। हमारे पास कहानी सुनाने के मकसद हो।कहानी सुनाई तभी जा सकती है जब हमारा उससे जुड़ाव हो गया हो। कहानी हमारे दिल-दिमाग में रची-बसी हो। कहानी को छोटा और बड़ा करने की ताकत हो। जब हम अपना निजी अनुभव सुना रहे होते हैं तब हम कहीं नहीं उलझते। कुछ नहीं भूलते। क्यों? फिर कहानियों को सुनाने में क्या दिक्कत है?हम अपने परिवेश को भी कहानी में लाएँ। कहानियाँ सन्दर्भ देती चली जाती है। कहानियाँ बच्चों को भाषा के नजदीक ला रही होती हैं।हमारी कहानियों में बहुत कुछ आना चाहिए। हमेश सुखान्त ही हो, जरूरी नहीं।

सत्र के अन्त में कई सवाल-जवाब भी हुए।

कहानी सुनाने की कला कैसे आए? के जवाब में सुभाष जी ने कहा, ‘यह तो बार-बार कहानी पढ़ने से आएगा। अभ्यास से आएगा। कहानी सुनाने से पहले कहानी को समझना होगा। कहानी के साथ हम सहायक सामग्री के तौर पर काम कर सकते हैं। प्रोपटीज़ का इस्तेमाल कर सकते हैं। कई बार यह बेहद प्रभावी हो जाता है। हम स्वयं पात्र बन सकते हैं। कहानी सुनाने का काम नाटक भी करते हैं। हर किसी में कहानी है। हम सब कहानी सुनाना चाहते हैं। कहानी सुनना चाहते हैं। बस थोड़े से अभ्यास की आवश्यकता है।'

प्रस्‍तुति : मनोहर चमोली ‘मनु‘ ( उनके फेसबुक पेज से साभार)

प्रस्तुतकर्ता : अध्यापक की सोच टीम

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