शुक्रवार, 30 जून 2017

गलती करना-1(अकल लगाने की आजादी)

दीपा को स्कूल से गणित का गृहकार्य मिला था जिसमें हरेक पन्ने पर चार-पाँच इबारती सवाल दिए हुए थे। उनमें से एक सवाल इस तरह से था, ‘15 ट्रक में 3000 चावल के कट्टे यानी आधे आकार वाले बोरे भरे जा सकते हैं, तो बताओ 8 ट्रक में चावल के कितने कट्टे भरे जा सकते हैं?’

दीपा को इस सवाल को हल करने का तरीका आता था, उसने उस तरीके का इस्तेमाल कर सवाल को पहले कदम तक हल कर दिया। पहले कदम पर मिली बड़ी संख्या देखकर उसे जवाब के सही होने पर शंका हुई। इस वजह से उसने एक ट्रक में भरे जाने वाले चावल के कट्टों की संख्या में से एक शून्य काट कर उसे 200 से 20 कर दिया। और इस प्रकार 8 ट्रक में भरे जाने वाले कट्टों की संख्या 160 निकाली।

दीपा का गृह कार्य देखकर उसकी माँ अनीता ने उसे डाँटने के अन्दाज़ में कहा, “क्या दीपा, पहले तो तुमने जवाब सही लिखा फिर उसे काटकर बदल क्यों दिया? क्या सोचकर बदला? क्या जरूरत थी ऐसा करने की? अच्छा भला सही जवाब काट कर गलत कर दिया।”

अनीता ने दीपा को बताया कि तुमने पहले जिस तरह से किया था वही जवाब सही है। इसे ठीक कर लेना। मैं मेहमान के तौर पर वहाँ बैठा माँ-बेटी के इस संवाद को गौर से सुन रहा था। मैंने अनीता से कहा कि तुम इस बात की चिन्ता मत करो कि जवाब गलत हो गया। असल बात तो यह है कि दीपा ने सवाल को मशीनी ढंग से हल करने की बजाय उसे करते वक्त सोचा कि क्या यह जवाब सही है। और अगर सही नहीं है तो उसे दुरुस्त करने के लिए क्या किया जाए। यह ठीक है कि दुरुस्त करने के चक्कर में उसने जवाब को गलत कर दिया, लेकिन सवाल को हल करते वक्त उसने जो कार्यनीति इस्तेमाल की वह गणित ही नहीं किसी भी विषय को सीखने के लिहाज से काम की है। इसी तारतम्य में मैंने अनीता से पूछा कि तुम्हारा क्या ख्याल है आखिर दीपा ने पहले कदम के हल में आई संख्या को छोटा करने की क्यों सोची होगी? अनीता का मानना था कि इसकी वजह शायद यह हो कि उस पन्ने पर दिए गए बाकी सवालों में से किसी में भी जवाब की संख्या दहाई तक नहीं जाती थी। इसी वजह से उसे लगा होगा कि इस जवाब में इतनी बड़ी संख्या कैसे आ सकती है।

घटना छोटी-सी थी लेकिन देर तक मुझे परेशान करती रही। मेरे सामने कई सवाल खड़े हो गए जैसे, क्या अनीता के साथ हुई बातचीत से दीपा समझ गई होगी कि गलती करने की वजह क्या थी? क्या अब दोबारा वह इस तरह की गलतियों से खुद को बचा पाएगी? क्या वह अपनी गलतियों को पहचानना सीखने की ओर कुछ कदम बढ़ा पाएगी? क्या वाकई उसने जो किया वह गलत था या अनीता जो कर रही थी वह गलत था या दोनों के तरीकों में कुछ सही और कुछ गलत? अगर दीपा और अनीता के तरीकों में कुछ गलत था तो उसे दुरुस्त करने का सही तरीका क्या हो सकता था?

गलती किसकी?

दीपा के नजरिए से देखें, तो उसने कोई ‘गलती’ नहीं की। अध्यापक द्वारा सिखाई गई गणनविधि का इस्तेमाल करते हुए सवाल को हल किया। हल करने के पहले कदम पर जो जवाब मिला उस जवाब के ‘सही’ होने पर उसे शंका हुई। उसने अपनी अक्ल का इस्तेमाल करके जवाब के बारे में एक अनुमान लगाया। अनुमान लगाने में उसने उसी पेज पर दिए गए कुछ सवालों को हल करने से मिले अनुभवों का सहारा लिया और इसके आधार पर ‘गलत’ जवाब को ‘सही’ किया।

लेकिन क्या सीखने व सिखाने को लेकर इन दोनों का नजरिया एक-सा है? इस उदाहरण को ही अगर देखें तो हम पहचान सकते हैं कि किसी जवाब पर गलत का ठप्पा कौन लगा रहा है। बच्चों से उनके जवाब के कारण को जाने बगैर उन जवाबों को सही या गलत घोषित कर देने का अधिकार अक्सर बड़े अपने पास सुरक्षित रखते हैं। बड़ों और शिक्षकों के पास किसी भी हल करने के तरीके को सही या गलत साबित करने का कोई तर्क या तरीका होता होगा, जो कि इस मामले में अनीता के पास है भी, यानी एक ही जवाब के सही या गलत होने को लेकर बड़े व बच्चों का एकदम उलट नजरिया होना एकदम मुमकिन है।

तो यहाँ पर शिक्षाशास्त्रीय चुनौती यह है कि दो अलग-अलग नजरियों में से उपयुक्त नजरिए की पहचान कैसे की जाए। उनमें से एक नजरिए के साथ उम्र, अनुभव, ज्ञान, समाज की ही नहीं बल्कि एक विशालकाय शिक्षा तंत्र की ताकत भी है। वहीं दूसरी ओर बच्चों का नजरिया जिसे अक्सर गलत ही ठहराया जाता है। या कोई तीसरा रास्ता भी है जिसमें बड़े खुद अपने नजरिए की जाँच करें और बच्चों को भी अपने नजरिए की जाँच करने को बढ़ावा दें ताकि दोनों किसी एक आम राय पर पहुँच सकें।

तीसरे रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि शिक्षक अगली दो बातें स्वीकार करें। पहली, कि उनके नजरिए में भी कोई खोट हो सकती है, वे भी गलत हो सकते हैं। दूसरा, बच्चों के पास अपने किए कामों की कोई-न-कोई वजह होती है। पूछे जाने पर या मौका मिलने पर वे अपनी वजहों, चाहे वे आपको कितनी भी अजीब क्यों न लगें, को अपने शब्दों में बयान कर सकते हैं या बयान करना सीख सकते हैं।

आपने गौर किया होगा कि उपरोक्त घटना में अनीता का ज्‍यादा जोर गलत जवाब को सही करवा देने पर है। यह सही है कि दीपा ने सही जवाब को काटकर गलत कर दिया है लेकिन उसके पास गणनविधि के तरीके से हासिल जवाब के ‘सही’ होने पर एक शंका है (जिस पर आगे बात की जाएगी), जिसकी वजह से वह उस जवाब पर दोबारा विचार करके उसे बदलने पर मजबूर होती है। तो पहला सवाल यह है कि बच्चों द्वारा की गई गलतियों के साथ कैसा बरताव किया जाए?

गलती के साथ बरताव

आमतौर पर बच्चों द्वारा ‘गलती’ करने पर उन्हें तुरन्त अपनी गलती का एहसास करवाकर, उसमें सुधार करवाना एक बहुत ही मशहूर तरीका है जिसे आम अभिभावक से लेकर पेशेवर अध्यापिकाएँ तक सभी धड़ल्ले से काम में लेते हैं। लेकिन इस तरीके की कई समस्याएँ हैं जैसे कि, यह गलती को तय करने का जिम्‍मा बड़ों व अध्यापकों पर छोड़ देता है। इसमें बच्चों के पास अपनी ‘गलती’ की वजह को समझाने का मौका नहीं होता। इस तरीके में बच्चों द्वारा किसी भी वजह से गलती न सुधारे जाने पर बहुत जल्दी सजा की राह पकड़ ली जाती है, जिससे सीखना तो कहीं गुम-सा हो जाता है। अगर आप सीखने या अभ्यास के दौरान की गई गलतियों को जुर्म मानते हैं तो बच्चों के लिए उसकी सजा से बच पाना नामुमकिन-सा है और अगर आप ‘गलती’ को सीखी हुई चीजों या सीखने में आ रही मुश्किलों का संकेत मानते हैं तो आपके सामने कई रास्ते खुल जाते हैं।

अगर बड़े किसी जवाब को हासिल करने का सिर्फ एक ही तरीका जानते हैं तो हमारे पास उस गलती की वजहों का अनुमान लगाने की सिर्फ एक ही कसौटी होती है। अगर हम यह मानते हैं कि किसी जवाब पर पहुँचने के कई तरीके हो सकते हैं तो हम अकेले यह तय नहीं कर सकते कि दूसरों द्वारा की गई फलाँ गलती की ठीक-ठीक वजह क्या हो सकती है।

गलती की पहचान करते वक्त कई चीजों को ध्यान में रखने की जरूरत होती है। जैसे सीखी जा रही अवधारणा के विभिन्न पहलू, उस अवधारणा का अन्य अवधारणाओं के साथ सम्बन्ध, अवधारणाओं को सिखाने के एक या उससे ज्‍यादा तरीके, अवधारणा के बारे में सोचने के तरीके, किसी समस्या से जूझने की कार्यनीतियाँ आदि।

गलती की पहचान दो चीजों पर निर्भर करती है - सिखाई जा रही विषयवस्तु और सिखाने के तरीके। सिखाने के तरीकों का सम्बन्ध उस विषय को सिखाने के व्यापक मकसदों से भी जुड़ा होता है जैसे अगर गणित सिखाने का व्यापक मकसद गणितीय तौर-तरीकों से सोचना या चिन्तन का गणितीयकरण करना है, जैसा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 में कहा भी गया है, तो गणितीय चिन्तन के तौर तरीकों का विकास करना किसी भी अवधारणा को सिखाने के तरीके की बुनियादी शर्त बन जाता है। इसकी गैर-मौजूदगी में आप गणित को रटवा तो सकते हैं लेकिन समझा कर सिखा नहीं सकते। यह बात और है कि आपकी रटवाई गणित से भी बच्चे अपने बूते पर कुछ-न-कुछ गणितीय-करण तो कर ही लेते हैं।

गलती की पहचान

गलतियों को पहचानने में दूसरों की मदद करने का सबसे आसान तरीका यह होता है कि शिक्षक या अभिभावक बच्ची को उसकी गलती व उसे दुरुस्त करने का तरीका बता दें। इस तरीके की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें सीखने वाले को अपनी अक्ल का धेला भी खर्च नहीं करना पड़ता। उसे सिर्फ बड़ों द्वारा बताई गई गलती को बड़ों द्वारा बताए गए तरीके से दुरुस्त भर करना होता है। इसमें न तो खुद की ‘गलती’ के बारे में सीखने वाले से कोई राय ली जाती है न ही उसे अपनी गलती की छानबीन का कोई मौका मुहैया करवाया जाता है। बच्ची यह नहीं समझ पाती कि उसकी गलती की पहचान कैसे की गई। नतीजन अगली बार गलती की पहचान उसे फिर से दूसरों से ही करवानी पड़ती है।

इस उदाहरण में अनीता ने दीपा को गलती की वजह व उसे दुरुस्त करने का तरीका खुद ही बता दिया। इसमें भी न तो बच्ची के पास गलती खुद तलाशने और न ही खुद पहचानने के लिए जरूरी औजारों को हासिल करने व उन्हें इस्तेमाल करने का मौका है।

इस पूरी प्रक्रिया में इस सम्भावना की खोजबीन की गुंजाइश खत्म हो जाती है कि आप जिसे गलती समझ रहे हैं, हो सकता है बच्चे की निगाह में वह गलती हो ही नहीं। लेकिन यह तब मुमकिन है जब आप उससे उसकी गलती की वजह जानना चाहें। वैसे भी जब कोई बच्चा अपने जवाब को काटकर दूसरा जवाब लिखता है तो दरअसल वह अपने सवाल को हल करने की गणनविधि पर शक करने, उस पर सवाल उठाने के साथ-साथ उस जवाब पर किसी दूसरे तरीके से भी विचार कर रहा होता है।

अगर बड़ों को लगता है कि बच्चों ने गलती की है तो पहले वे बड़ों की नजर में गलत माने गए काम के पीछे की वजह बच्चों से पूछें। या बच्चे के साथ इस तरह से बातचीत या काम करें कि उसे अपने काम में हुई गड़बड़ खुद नजर आने लगे व हमारे तरीके या समझ में कोई गड़बड़ है तो वह हमें भी दिखने लगे। जब एक बार उसे उसकी और हमें अपनी गड़बड़ नजर आ जाए तो उसे दुरस्त करने के तरीकों को उसे ही खोजने दें। हम बड़े उस खोजबीन में मदद करने के साधन व मौके गढ़ने में उसकी सहायता कर सकते हैं। इसके साथ ही हमें अपनी समझ व तरीकों को दुरुस्त करने के मौके खुद ही गढ़ने पड़ेंगे।

पहला वाला तरीका बड़ों के लिए भी आसान है क्योंकि हमें उस तरीके में अपनी अक्ल ज्‍यादा खर्चनी नहीं पड़ती और दूसरा तरीका सबसे मुश्किल, क्योंकि उस तरीके को काम में लेते ही हमारी अक्ल एक पुख्ता इमारत की जगह हमेशा अधबनी व निरन्तर बदलती रहने वाली इमारत में तब्दील हो जाती है।

गलती को सीखने के मौकों में बदलना

किसी गलती को सीखने के मौके में आप तभी बदल सकते हैं जब आप गलती में छुपी सीखने की सम्भावनाओं को देख पाएँ। तभी आप सीखने वाले को अपनी गलती खुद पहचानने के औजार भी मुहैया करवा सकते हैं।इस गलती में सीखने के कई मौके बनाए जा सकते थे जिनमें से कुछ का ज़िक्र आगे लेख में किया गया है।

जैसे-

किसी समस्या को एक से ज्‍यादा तरीकों से हल करना।गणनात्मक प्रक्रिया से जुड़ी अवधारणात्मक समझ को गहरा करना।खुद के गणितीय अनुभवों को अपनी भाषा में व्यक्त करने से शु डिग्री करके सटीक गणितीय शब्दावली को समझकर इस्तेमाल करने की तरफ बढ़ना आदि।

यह सब हम बड़ों की विषय की विषयवस्तु सम्बन्धी समझ, उसे सिखाने के तरीकों की समझ व उन्हें अमल में लाने की काबिलियत पर निर्भर करता है।


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