🔴 गंभीर सवालों में शिक्षा :
👍🏻लेखक : प्रेमपाल शर्मा
☹कोटा और दूसरे शहरों में आत्महत्या की खबरों को हत्या कहना ज्यादा सही होगा। आश्चर्य की बात यह है कि ऐसी किसी खबर या घटना पर देश के पुरस्कृत लेखक, बुद्धिजीवियों, कलाकारों ने कभी कोई प्रतिक्रिया न दी, न देंगे। इससे ज्यादा संवेदनशील मुद्दा क्या हो सकता है, जब बच्चे कुछ आरोपित सपनों को पूरा न कर पाने की हताशा में मां-बाप, समाज, दोस्तों की टेढ़ी, व्यंग्य भरी नजरों से भयभीत अपनी ही जान दे देते हैं। बरसों से यह हो रहा है। मगर इस साल तो अति ही हो गई है। अभी तक अकेले कोटा शहर में दो दर्जन आत्महत्याओं के मामले दर्ज किए जा चुके हैं। मान कर चलिए कि इससे कई गुना ज्यादा होंगे। दूसरे शहरों में भी और जिन्हें लोकलाज से छिपाया भी जाता रहता है।
😡 आखिर दोष किसका है?
👉🏻 बच्चों का तो कतई नहीं।
⏩ वे तो कच्चे मिट्टी हैं जैसा ढालोगे, पकाओगे वैसा ही वे बनेंगे। आत्महत्या से पहले छिपाकर छोड़ी गई पर्चियां दिल दहलाने वाली हैं।
😡 ‘यदि मम्मी सेलेक्शन नहीं हुआ तो किसी से नजरें नहीं मिला पाऊंगी। मैं चाहती थी कि आप मुझ पर गर्व करें।’
😡 एक और पर्ची की इबारत, ‘मां मैं बहुत प्रेशर में था। पापा के पैसे भी बर्बाद हुए। मैं मजबूर हूं।’
⏩कोई और देश होता तो पूरा समाज तंत्र सड़कों पर उतर आता।
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बीस बरस पहले लंदन के नजदीक एक बच्चे की स्कूल में लाश मिली थी तो हफ्तों अखबारों में यह मौत सुर्खियों में रही थी।
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यहां पसरी चुप्पी बताती है कि हम सब इन आत्महत्याओं के दोषी हैं। उन्हें उकसाते हैं। दुनिया के सामने हमारे सारे बड़बोले राजनेता इस बात पर तो इतराते हैं कि दुनिया की सबसे नौजवान आबादी भारत में है, लेकिन क्या इन नौजवानों के सपनों को कोई जगह व्यवस्था दे पा रही है?
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न पढ़ने के लिए पर्याप्त मेडिकल कॉलेज, न अच्छे इंजीनियरिंग या दूसरे शोध संस्थान।
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आइआइटी जैसे संस्थान कुछ ब्रांड बन गए हैं, लेकिन चौदह लाख परीक्षा देने वाले और सीट मात्र दस हजार। वह भी पिछले कुछ वर्षो में बढ़ी हैं। फिर शेष कहां जाएंगे?
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दुनिया की सबसे कठिन मानी जाने वाली परीक्षा। बचे हुए कॉलेजों में फीस तो पूरी मगर न शिक्षक, न कोई पढ़ने की सुविधा।
⏩क्यों राज्य दर राज्य सरकारें इतनी नाकारा बन चुकी हैं जो इन कालेजों को ठीक नहीं कर सकतीं, स्कूल तक नहीं चला सकतीं। क्यों कोटा की इन आत्महत्याओं में नब्बे प्रतिशत बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे हिंदी भाषी राज्यों से ही हैं?
☠ दबाव या अपराध मां-बाप का।
🤑जब इंजीनियरिंग की डिग्री में पूछ सिर्फ आइआइटी, एनआइटी की बची है तो बच्चे के कानों पर स्कूल के दिनों से ही गूंजने लगते हैं ये शब्द।
😍 सपनों, महत्वाकांक्षाओं, गर्वीले भविष्य से धकेले जाते ये बच्चे पहुंच तो गए कोटा जैसे कोचिंग संस्थानों में, लेकिन क्या उस माहौल में रातों-रात फिट हो जाना इतना आसान है?
🤖 ये मानवीय आत्माएं हैं, निर्जीव रोबोट नहीं। हर कोशिश के बावजूद हजारों बच्चे हताश, निराश, एकाकीपन के कुएं की तरफ बढ़ते जाते हैं।
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एक अनुमान के अनुसार मेडिकल, इंजीनियरों की कोचिंग ले रहे लगभग बीस प्रतिशत बच्चे पढ़ाई से हटकर इन व्यसनों की गिरफ्त में आ जाते हैं।
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दिन-रात वही गणित, भौतिक, रसायन के फॉर्मूले रटते-रटते मानसिक रोगी भी कई बच्चे हो चुके हैं।
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यहां शिक्षाविद प्रोफेसर यशपाल की वर्ष 1992 की रिपोर्ट की बातें याद आती हैं। ‘जो बच्चे नहीं चुने जा पाते वे तो पूरी उम्र के लिए कुंठित होते ही हैं, चुने जाने वाले भी इस रटंत पद्वति के चलते बहुत अच्छा नहीं कर पाते। इसका हल पूरी शिक्षा व्यवस्था में ढूंढ़ना होगा और तुरंत।
⏩ आइआइटी की परीक्षा में पिछले दस बरस में दसियों बार अनगिनत परिवर्तन किए गए हैं। कभी दो चरण कभी तीन, कभी आब्जेक्टिव पर जोर तो कभी 12वीं के नंबरों पर। शिक्षा व्यवस्था में जितने डॉक्टर उतनी तरह की दवाइयां, ऑपरेशन, सर्जरी। मंत्री या तो वे हैं जो हॉवर्ड और कैंब्रिज में पढ़े हैं या वे जो जाति, धर्म के आंकड़ों को ही बांच सकते हैं।
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आश्चर्य है कि ये दोनों ही पक्ष चुप्पी साधे हैं। नतीजा-न कोचिंग कम हुई, न दूर-दूर के गांवों, कस्बों से कोचिंग के मक्का-मदीना की तरफ बढ़ता पलायन। बढ़ती आत्महत्याओं से भी शिक्षा के नियंताओं के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं, क्योंकि इससे वोटों की फसल पर कोई असर नहीं होगा।
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गनीमत है कि इन्होंने इन आत्महत्याओं में जाति और धर्म की गिनती नहीं की। इससे भी बुरा पक्ष है देश के इन शीर्ष संस्थानों में पहुंचने वाले छात्रों की प्रतिभा पर प्रश्नचिन्ह।
🔰 दुनिया भर से मिल रही रिपोर्ट बता रही है कि ये शीर्ष संस्थान लगातार पिछड़ रहे हैं। कुछ वर्ष पहले एक वैज्ञानिक पत्रकार का कहना था कि आखिर क्या कारण है कि इन शीर्ष संस्थानों में पढ़ रहे बच्चों में कल्पनाशीलता, अन्वेषण और रचनात्मकता निरंतर ह्रास पर है।
🔰पिछले वर्ष आइआइटी रुड़की में पहले ही वर्ष में सत्तर छात्रों का फेल होना क्या बताता है? अंग्रेजी का कहर तो है ही, रटंत शिक्षा की सीमाएं भी साफ हैं। फिर भी इनमें पहुंचने की उतावली या हताशा में आत्महत्याएं?
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प्रतिस्पर्धा कोई बुरी बात नहीं है, लेकिन शिक्षा व्यवस्था में वे बुनियादी परिवर्तन लाने होंगे जो बच्चों को इतना मजबूत बनाएं कि जीवन में किसी एक-दो परीक्षाओं में पास-फेल होना कोई मायने नहीं रखता। डार्विन, आइंस्टीन से लेकर प्रेमचंद, मंटो की वे जीवनियां पढ़ाई जाएं जिनसे ये जान सकें कि स्कूल या प्रतियोगिता में कुछ नंबरों के कम-ज्यादा होने से खास फर्क नहीं पड़ता। और बच्चों से ज्यादा जरूरी है उनके मां-बाप, स्कूल के टीचरों की मानसिकता को बदलना कि तुम अपने नकली सपनों की खातिर क्यों इन लाड़लों की कुर्बानी देने पर तुले हुए हो। दुनिया भर के शिक्षाविद उस शिक्षा के हिमायती रहे हैं जहां बच्चा मस्ती से पढ़े स्कूल आए, न कि स्कूल और इन कोचिंग संस्थानों की कैद में हताश हो। यूरोप, अमेरिका आदि ने शिक्षा व्यवस्था की इस चूहा दौड़ से बचने के लिए ठोस कदम उठाए हैं और इसका फायदा पूरे समाज को मिल रहा है। लेकिन हमारे यहां तो सामाजिक न्याय और विकास के नाम पर वे बातें जारी हैं जिन पर 15वीं सदी भी शरमा जाए।
प्रस्तुति : aks टीम
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