रविवार, 18 जून 2017

एक गंभीर संकेत

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🔵 एक गंभीर संकेत

लेखक : अनुराग

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पिछले दिनों समाचार पत्रों में लंदन की एक खबर प्रकाशित हुई कि ‘द फेबुलस बेकर्स’ के सर्वे में बच्चों ने बताया कि पेड़ पर उगती हैं चॉकलेट और फ्रिज से निकलती है स्ट्रॉबेरी। चौंकाने वाली बात यह भी है कि ब्रिटेन का हर दस में से एक बच्चा यही सोचता है कि कई फल पेड़ों पर नहीं, बल्कि कारखाने में बनते हैं।

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प्रसिद्ध मफिन फर्म ‘द फेबुलस बेकर्स’ ने हाल ही में छह से दस साल की आयु वर्ग के एक हजार बच्चों के बीच यह सर्वे कराया था। इस सर्वे के नतीजे बेहद दंग कर देने वाले हैं।

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सर्वे के अनुसार दस में से एक बच्चे का मानना था कि सेब पेड़ पर नहीं उगते।

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चार में से एक यह समझता है कि स्ट्रॉबेरी जमीन के अंदर उपजती है। 10 में से एक ने जवाब दिया कि ये पेड़ पर उगते हैं, जबकि कुछ ने कहा, ये फ्रीज से बाहर आते हैं।

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बच्चों को लगता है कि चॉकलेट पेड़ों पर उगती हैं।

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शहद गाय से मिलता है।

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एक-चौथाई से ज्यादा को यह नहीं मालूम था कि केला पेड़ पर उगता है।

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10 में से एक ने बताया कि अंगूर लताओं से नहीं, बल्कि पेड़ से चुने जाते हैं।

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बच्चे सबसे ज्यादा तरबूज को लेकर भ्रमित हुए। कइयों का मानना था कि यह पानी भरा फल जमीन के अंदर, पेड़ों या झाड़ियों पर उगता है।

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हालांकि इस पर थोड़ा संतोष किया जा सकता है कि आम को लेकर सबसे ज्यादा सही जवाब मिले और बच्चों ने बताया कि यह पेड़ पर उपजता है।
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यह सर्वे रिपोर्ट पढ़कर किसी का मन यह सोचकर मुस्करा सकता है कि बच्चों के जवाब कितने मजेदार और मासूमियत भरे हैं। मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा था। लेकिन क्षण भर में ही मेरा मन अवसाद से भर गया कि हम बच्चों को किस तरह की शिक्षा दे रहे हैं कि वह इतनी मामूली सी बात भी नहीं जानते कि फल पेड़ों पर लगते हैं, न कि कारखानों में बनते हैं।
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शिक्षा का यह झोल केवल ब्रिटेन का नहीं है। भारत में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का भी कमोबेश यही हाल है। बच्चों को ग्लोबल बनाने के नशे में हम उन्हें आसपास की दुनिया से काटते जा रहे हैं। जिस तरह की तथाकथित कान्वेंटी शिक्षा का प्रचलन भारत में बढ़ता जा रहा है, उसमें तो आस-पास की दुनिया को जानने-समझने के अवसर खत्म होते जा रहा हैं।

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बच्चा सुबह उठेगा, बस या कार से स्कूल जाएगा, वहां पाठ्यक्रम की पुस्तकों से जुझता रहेगा, घर वापस आकर होमवर्क का दबाव, बाकी बचा समय कंप्यूटर और टेलीविजन को समर्पित। पढ़ाई पूरी करके कोई डिग्री और अधिक से अधिक का पैकेज। ऐसे में आसपास की दुनिया को जानने-समझने की न तो कोई गुंजाइश है और न ही बच्चा इसकी जरूरत महसूस करता है।

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माता-पिता भी इससे खुश रहते हैं कि उनका बच्चा अमेरिका के राज्यों के नाम जानता है और उसे पता है कि दुनिया का सबसे बड़ा झराना कहां है या माइकल जैक्सन के जीवन में क्या-क्या विवाद जुड़े हुए हैं।
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इस शिक्षा का दुष्परिणाम यह भी है कि जब बच्चे के मन में ग्लोबल ज्ञान ठूंसा जा रहा है, तो उसकी सपनों की दुनिया भी तो उसी ग्लोब का हिस्सा बनती है। यही वजह है कि जैसे-जैसे बच्चा उच्च शिक्षा की सीढ़ी चढ़ता जाता है, उसे अपने देश में बदबू आने लगती है और कमियां ही कमियां दिखाई देने लगती हैं। नतीजा यह होता है कि वह शिक्षा पूरी करते है ही अमेरिका, कनाडा आदि की ओर रुख कर लेता है। जिन चीजों के बारे में बच्चे को पढ़ाया और समझाया जाएगा, लगाव भी उसका उन्हीं से होगा।
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ब्रिटेन की सर्वे रिपोर्ट हम सबके लिए खतरे की घंटी है। देश में जो शिक्षा का मॉडल अपनाया जा रहा है, उसके बारे में पुनर्विचार किया जाए। उसमें इस तरह का बदलाव किया जाए कि बच्चे के मन में आसपास की दुनिया को जानने की ललक पैदा हो?

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माता-पिता भी थोड़ा समय निकालकर बच्चों को प्राकृतिक स्थलों-नदी, तालाब, खेत, वन क्षेत्र आदि में ले जाएं, तो उन्हें अपने आसपास की दुनिया को जानने-समझने का एक मौका मिलेगा।

प्रस्तुति : aks टीम

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