शुक्रवार, 30 जून 2017

गलती करना-2 (अकल लगाने की आजादी)

एक से ज्‍यादा तरीके सम्भव

गणित में आमतौर पर जवाब में गलती होने पर उस सवाल को हल करने की विधि दोबारा, तिबारा बता दी जाती है। इसके बाद भी गलतियाँ करने पर उसकी जिम्‍मेदारी बच्चे पर डाल दी जाती है। इसके पीछे यह मान्यता होती है कि किसी गणितीय समस्या को हल करने का सबसे बेहतरीन तरीका उसे हल करने की गणनविधि के कदमों को आस्थापूर्वक याद रखना और उन्हें उसी क्रम में इस्तेमाल करना होता है। जो इसे करने में मुश्किल पाते हैं उनके बारे में माना जाता है कि उनकी याददाश्त कमजोर है, वे क्रम को याद नहीं रख पाते और नतीजन उनका दिमाग भी कमजोर है।


मुश्किल यह है कि सवाल को हल करने के लिए बड़े जिस तर्क व तरीके को इस्तेमाल करते हैं उसे इन्सानों ने सदियों की मेहनत से विकसित किया है। उन तरीकों की एक बड़ी खूबी यह होती है कि उनकी मदद से कम-से-कम कदमों में सटीक जवाब की गणना की जा सकती है। इस सवाल में अपेक्षित नियम को ही लें तो इस ऐकिक नियम को खोजने से पहले इन्सान काफी वक्त तक कई तरीकों से इस किस्म के सवालों को हल करता रहा होगा। जब हम बच्चों को ऐकिक नियम से गणितीय समस्याओं को हल करने का सटीक व संक्षिप्त तरीका सिखाने के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं तो बच्चों के पास उस गणनविधि को अपने तरीकों से गढ़ने व इसके बहाने इसके विकास की कुछ समस्याओं से जूझने का, दूसरी अवधारणाओं के साथ उसके सम्बन्धों को समझने का एवं खुद उस विधि में निहित कदमों का अर्थ व उनकी जरूरत को समझने व उनके बारे में अपनी शंकाओं को रखने या उनकी छानबीन करने का मौका नहीं मिलता। इसका नतीजा यह होता है कि वे बगैर समझे कदमों को याददाश्त के सहारे इस्तेमाल करने का अभ्यास करते रहते हैं।

जैसे इस सवाल को बगैर मानक गणनविधि के इस्तेमाल के इस तरह से भी हल किया जा सकता है :

15 ट्रक में 3000 कट्टे
5 ट्रक में 1000 कट्टे
1 ट्रक में 200 कट्टे
3 ट्रक में 600 कट्टे

5 व 3 मिलाकर 8 ट्रक में 1600 कट्टे।

अब यह रास्ता भले ही थोड़ा लम्बा लगे लेकिन आपको लगातार सोचने पर मजबूर तो करता ही है। इसके साथ-ही आपको इसमें बेहद सरल गणनाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है। आपको मशीनी तरीके से 3000 में 15 का भाग देने की जरूरत नहीं पड़ती। इस तरह से आपके दिमाग में लगातार ट्रकों की संख्या और उसमें रखे जाने वाले कट्टे की संख्या पर विचार चलता रहता है। और साथ ही आपको गुणा-भाग से ज्‍यादा पेचीदी अवधारणा अनुपात व समानुपात का सार्थक इस्तेमाल करने में हाथ आजमाने का मौका बार-बार मिलता रहता है।

अलग-अलग तरीकों से किसी समस्या को हल करना कुछ-कुछ ऐसा है जैसा कि अलग-अलग रास्तों से किसी एक ही मंजिल तक पहुँचना। इस तरह से काम करते वक्त आप उन रास्तों व मंजिल के सम्बन्ध को भी ज्‍यादा गहराई से समझ पाते हैं। इसके साथ ही मौका पड़ने पर आप मंजिल तक पहुँचने के लिए उपयुक्त रास्ते का चुनाव करने की काबिलियत भी खुद में विकसित कर पाते हैं।

अवधारणात्मक चिन्तन तक

दीपा के द्वारा सवाल को हल करने के तरीके से साफ है कि उसे गणनविधि के इस्तेमाल से यानी प्रक्रियागत तरीके से हल करना सिखाया गया है। इस तरीके में बच्चों को किसी समस्या को हल करने की प्रक्रिया के कदम सिखा दिए जाते हैं और उन कदमों को उसी क्रम में तय करने पर समस्या का जवाब मिल जाता है। अगर आपने कदमों का क्रम उलटा-पुलटा कर दिया या कोई कदम छोड़ दिया तो सही जवाब मिलने की सम्भावना करीब-करीब खत्म-सी हो जाती हैं। तो दीपा से कहा जा सकता है कि वह इस सवाल को फिर से हल करे। लेकिन उसने प्रक्रियागत कदम तो सही ही अपनाए। सो उसकी शंका इस प्रक्रिया को दोहराने के बावजूद वहीं की वहीं बनी रहेगी।

प्रक्रियागत तरीके में संक्रियाओं से जुड़े सवालों में जवाब की जाँच करने के लिए एक प्रक्रिया और सिखाई जाती है जिसमें गुणा व भाग के उलट सम्बन्धों का इस्तेमाल करते हुए जवाब की जाँच करवाई जाती है। इस तरीके से वह जवाब की जाँच करके यह पता कर सकती है कि उसने जिस जवाब को गलत समझ कर उसमें से एक शून्य काट दिया था वह दरअसल सही है। इससे जवाब तो सही हो जाएगा लेकिन दीपा के मन में पैदा हुई शंका फिर भी दूर नहीं होगी।

उस शंका को दूर करने के लिए हमें इस बात पर ध्यान देना पड़ेगा कि इसकी जड़ आखिर कहाँ पर है। दीपा ने सवाल को हल करते समय जवाब के सही होने या न होने के बारे में अनुमान लगाने की एक अच्छी कार्यनीति का इस्तेमाल किया लेकिन उसके इस्तेमाल करने में हुई चूक की वजह से नतीजे में जवाब गड़बड़ा गया। यानी दीपा के अनुमान लगाने के तरीके में कुछ समस्या है।

आप देख सकते हैं कि दीपा उसी पन्ने पर दिए गए सवालों को हल करने से मिले अनुभवों के आधार पर नतीजे निकालकर उनका इस्तेमाल नए सवालों के हल को जाँचने में कर रही है। वह एक स्तर के सवालों को हल कर एक तरह का सामान्यीकरण कर रही है। सामान्यीकरण का इस्तेमाल बच्चे अक्सर एक जैसे सवालों को शीघ्र हल करने के लिए भी करते हैं।

एक खास किस्म के तार्किक ढंग से अनुमान लगाना और उससे जुड़े अनुभवों का सामान्यीकरण करके उनके नतीजों को आगे इस्तेमाल करना दो ऐसी काबिलियतें हैं जो हर विषय और जिन्दगी में कई जगहों पर कई बार काम आती हैं और जिनके विकसित होने के मौके गणित में सबसे ज्‍यादा व सबसे अच्छी तरह से मिलते हैं।

अब अगर आप सामान्यीकरण की क्षमता को एक बुनियादी गणितीय क्षमता के तौर पर मानते हैं और यह भी मानते हैं कि इसका विकास परिभाषा को रटवाकर नहीं बल्कि अलग-अलग हालातों में इस काबिलियत को इस्तेमाल करके ही किया जाना चाहिए; तो आप अध्यापक व अभिभावक के नाते इस बात की खोजबीन करने के लिए उत्सुक हो सकते हैं कि यह बच्ची सामान्यीकरण जैसी काबिलियत का इस्तेमाल तो कर रही है जो कि अपने आप में एक अच्छी बात है लेकिन वह ऐसी क्या गड़बड़ कर रही है जो उसे गलत नतीजों की ओर धकेल रहा है।

यहाँ पर दो सवाल उठते हैं - पहला, हम अनुमान लगाने के तरीके में हुई गड़बड़ी को कैसे समझें? दूसरा, उसे दीपा के सामने कैसे उजागर करें कि वह इसमें छुपी गड़बड़ी को न सिर्फ पहचान पाए बल्कि इस किस्म की अन्य गड़बड़ियों से जूझने के लिए खुद की भी थोड़ी काबिलियत बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ा पाए।

किसी भी गणितीय समस्या के हल के सही या गलत होने का अनुमान लगाने का आधार कोई-न-कोई गणितीय विचार होना चाहिए। हमारे यहाँ इन युक्तियों या विचारों पर आमतौर पर चर्चा नहीं की जाती इसलिए बच्चे अनुमान के लिए ज्‍यादातर तुक्के भिड़ाते हैं। अब तुक्का तो तुक्का है कभी तीर बन जाता है तो कभी तुक्का ही रह जाता है। दीपा ने तीर यह चलाया कि जवाब के सही या गलत होने की जाँच अनुमान लगाकर की जाए। लेकिन अनुमान का तरीका यह चुना गया कि चूँकि पिछले तीन-चार सवालों में से हर सवाल को हल करते समय छोटे अंक आए हैं इसलिए इस चौथे-पाँचवें सवाल के जवाब को भी दहाई से कम ही होना चाहिए।

पर यह सवाल पिछले सवालों से एक पायदान आगे था इसलिए यहाँ दीपा का तुक्का सही नहीं बैठ सका।अगर बच्ची ने किसी वजह से जवाब को बदल दिया है तो उसकी तरफ सार्थक तरीके से ध्यान खींचने के कई तरीके हो सकते हैं। उनमें से दो का आगे जिक्र किया गया है।

यह कहा जा सकता है कि वह सवाल को तस्वीरें बनाकर हल करने की कोशिश करे। वह ट्रकों की तस्वीरें बनाकर उनमें कट्टों को बाँटकर देखे कि एक ट्रक में कितने कट्टे भरे जा सकते हैं। उससे यह भी बातचीत की जा सकती है कि वह ट्रक में कट्टों को भरते या बाँटते समय एक बार में एक ट्रक में कितने कट्टे रखना चाहेगी। एक, दस, सौ, हज़ार या कोई और संख्या? फिर एक ट्रक में भरे जाने वाले कट्टों की संख्या को अपने जवाब से मिलाकर देखे। गणित में इस तरीके को ‘दृश्यीकरण’ कहा जाता है जिसमें समस्या को तस्वीर में बदल कर उसे हल करने की कोशिश की जाती है और उस हल को संख्याओं के ज़रिए दर्शाया जाता है।

या फिर, जवाब में हो रही गड़बड़ पकड़ने के लिए उससे यह भी पूछा जा सकता है कि बताओ 8 ट्रक, 15 ट्रकों का कौन-सा हिस्सा होगा? अगर उसके साथ आधा करने व करीब-करीब अनुमान लगवाने का काम किया गया हो तो वह बता सकती है कि 8 ट्रक, 15 ट्रक का लगभग आधा होता है। कुल 15 ट्रकों में 3000 कट्टे आते हैं तो उसके आधे ट्रकों में कितने कट्टे भरे जा सकते हैं? मुमकिन है कि बच्ची सवालों की इस कड़ी में निहित तर्क को भाँपकर या समझकर कट्टे की संख्या को आधा कर पाए। और आप अगर कोशिश करें तो वह अपने तर्क को अपने शब्दों में बोलकर बताने की कोशिश भी कर पाए। आपने गौर किया होगा कि यहाँ पर चार राशियों में समानुपात की अवधारणा को काम में लिया गया है और इस तरीके से दो कदमों में हल होने वाले जवाब का करीब-करीब हल एक ही कदम में मिल जाता है। इसके जरिए अन्तिम जवाब में होने वाली गड़बड़ की ओर भी ध्यान खींचा जा सकता है।

इसी तरह बातचीत करके उसका ध्यान इस तरफ भी खींचा जा सकता है कि अनुमान लगाने का इस्तेमाल सिर्फ हल को जाँचते वक्त ही किया जाए, ऐसा कतई जरूरी नहीं है। इसका इस्तेमाल सवाल को हल करने की शुरुआत में और बीच में भी किया जा सकता है।

गणित पर बातचीत

इस घटना में छुपे एक और पहलू पर कुछ नजर डाली जाए। अनीता का अनुमान एकदम सही होने के बावजूद उसने जो तरीका अपनाया उसकी वजह से दोतरफा बातचीत का मौका गँवा दिया। दीपा को यह बताने की बजाय कि उसने सही जवाब को काटकर गलत कर दिया है, यह पूछा जा सकता था कि उसने पहले वाले जवाब को काटकर क्यों बदला। आप पहचान सकते हैं कि दूसरे सवाल के पीछे कुछ इस तरह की मान्यताएँ हैं। पहली, दीपा ने जवाब को मनमाने तरीके से नहीं बल्कि किसी-न-किसी वजह से बदला है, आम हालातों में बच्चे कोई भी काम सोच-समझकर ही करते हैं। दूसरा, वह जवाब को बदलने की वजह को अपनी भाषा में व्यक्त करने के काबिल है।

इस सवाल के जवाब में बहुत मुमकिन है कि दीपा अपनी वजहों को उतनी साफ-सुथरी भाषा में न बता पाए जितनी कि अनीता ने बताई। तो अनीता के पास मौका है कि वह दीपा की भाषा को बेहतर करके उसके तर्क को उसी के सामने फिर से पेश कर सके या फिर दीपा के तर्क पर कोई सवाल उठाकर उसे अपने तर्कों को बेहतर बनाने का मौका मुहैया करवाया जा सकता है।
गणित पर बातचीत करना भी गणित की समझ बनाने के लिहाज से एक अच्छा तरीका है लेकिन हर बातचीत सार्थक व रोचक नहीं होती। जैसे जब भी गणित पर बात करते हैं तो गणनविधि के कदमों का कदम-दर-कदम ब्यौरा दिया जाता है। बार-बार याद दिलाया जाता है कि उसने फलाँ कदम को छोड़ दिया, इस कदम को इसी वक्त इसी जगह पर होना चाहिए क्योंकि गणित में ऐसा ही होता आया है।

इस तरह की बातचीत मशीनी ढंग से गतिविधि के कदमों को याद रखने व जरूरत पड़ने पर उसे उगल देने की प्रवृति को बढ़ावा देती है। इसमें बच्चों की भूमिका टेपरिकॉर्डर से ज्‍यादा नहीं रहती और इस तरह की बातचीत कई बच्चों के लिए तो सजा में भी तब्दील होजाती है।

आखिर में

एक अध्यापिका या अभिभावक के तौर पर सीखने वाले द्वारा की जा रही गलतियों को पहचानना और उसे सीखने वाले को बता देना सबसे आसान काम है, आखिर इससे हम बड़ों के ज्ञान की सत्ता जो कायम रहती है। सीखने वाले की गलती के कारणों का सटीक अनुमान लगा पाना इससे मुश्किल काम है। यह काम किए जा रहे काम के बारीकी से अवलोकन, सीखने वाले से बात करके और काम के साथ जुड़ी अवधारणाओं के उसके साथ सम्बन्धों पर विचार करके ही किया जा सकता है। हालाँकि इसके लिए अध्यापिका या अभिभावकों के पास लिपिंग मा के शब्दों में ‘बुनियादी गणित की गहन समझ’ होनी जरूरी है।

क्योंकि इसके बगैर किसी विषयवस्तु को सीखने में रोड़ा अटका रहे विषयगत कारणों की पहचान कर पाना बहुत ही मुश्किल-सा काम है और इन सबसे मुश्किल काम है गलती के कारणों को पहचानने में सीखने वाले की इस तरह मदद करना कि वह उन्हें खुद पहचाने; और इसी तरह गलती को दूर करने के रास्ते भी खुद तलाश पाए व इस किस्म की गलतियाँ करने से बच पाए।

इसके लिए किसी भी विषय की सिर्फ विषयवस्तु सम्बन्धी समझ से ही काम नहीं चलता बल्कि उस विषयवस्तु के सिखाने के तौर तरीकों की गहरी समझ व उसे इस्तेमाल करने का हुनर होना भी जरूरी है जिसे “विषयवस्तु की शिक्षाशास्त्रीय समझ कहते हैं” - ली शुल्मन। इन सबके साथ-साथ सीखने वाले की सीखने व सोचने समझने की काबिलियत पर भरोसा व सीखने वाले के साथ सौहार्दपूर्ण रिश्ता बेहद जरूरी है। आखिर खूब सारी गलतियाँ करने की आजादी के जरिए कोई भी इन्सान चाहे वह कम-उम्र हो या पकी उम्र का, अक्ल की ऊँचाइयों और गहराइयों को एक भरोसेमन्द माहौल में ही आसानी से हासिल कर सकता है।

रवि कान्त: शैक्षिक सलाहकार के तौर पर विभिन्न संस्थाओं, अध्यापकों के साथ काम। शिक्षण सामग्री, पाठ्यचर्या व पाठ्य पुस्तकों और प्रशिक्षण संदर्शिकाओं आदि का निर्माण, शैक्षिक शोध और अनुवाद। गणित शिक्षण में खास रुचि। जयपुर में निवास।

गलती करना-1(अकल लगाने की आजादी)

दीपा को स्कूल से गणित का गृहकार्य मिला था जिसमें हरेक पन्ने पर चार-पाँच इबारती सवाल दिए हुए थे। उनमें से एक सवाल इस तरह से था, ‘15 ट्रक में 3000 चावल के कट्टे यानी आधे आकार वाले बोरे भरे जा सकते हैं, तो बताओ 8 ट्रक में चावल के कितने कट्टे भरे जा सकते हैं?’

दीपा को इस सवाल को हल करने का तरीका आता था, उसने उस तरीके का इस्तेमाल कर सवाल को पहले कदम तक हल कर दिया। पहले कदम पर मिली बड़ी संख्या देखकर उसे जवाब के सही होने पर शंका हुई। इस वजह से उसने एक ट्रक में भरे जाने वाले चावल के कट्टों की संख्या में से एक शून्य काट कर उसे 200 से 20 कर दिया। और इस प्रकार 8 ट्रक में भरे जाने वाले कट्टों की संख्या 160 निकाली।

दीपा का गृह कार्य देखकर उसकी माँ अनीता ने उसे डाँटने के अन्दाज़ में कहा, “क्या दीपा, पहले तो तुमने जवाब सही लिखा फिर उसे काटकर बदल क्यों दिया? क्या सोचकर बदला? क्या जरूरत थी ऐसा करने की? अच्छा भला सही जवाब काट कर गलत कर दिया।”

अनीता ने दीपा को बताया कि तुमने पहले जिस तरह से किया था वही जवाब सही है। इसे ठीक कर लेना। मैं मेहमान के तौर पर वहाँ बैठा माँ-बेटी के इस संवाद को गौर से सुन रहा था। मैंने अनीता से कहा कि तुम इस बात की चिन्ता मत करो कि जवाब गलत हो गया। असल बात तो यह है कि दीपा ने सवाल को मशीनी ढंग से हल करने की बजाय उसे करते वक्त सोचा कि क्या यह जवाब सही है। और अगर सही नहीं है तो उसे दुरुस्त करने के लिए क्या किया जाए। यह ठीक है कि दुरुस्त करने के चक्कर में उसने जवाब को गलत कर दिया, लेकिन सवाल को हल करते वक्त उसने जो कार्यनीति इस्तेमाल की वह गणित ही नहीं किसी भी विषय को सीखने के लिहाज से काम की है। इसी तारतम्य में मैंने अनीता से पूछा कि तुम्हारा क्या ख्याल है आखिर दीपा ने पहले कदम के हल में आई संख्या को छोटा करने की क्यों सोची होगी? अनीता का मानना था कि इसकी वजह शायद यह हो कि उस पन्ने पर दिए गए बाकी सवालों में से किसी में भी जवाब की संख्या दहाई तक नहीं जाती थी। इसी वजह से उसे लगा होगा कि इस जवाब में इतनी बड़ी संख्या कैसे आ सकती है।

घटना छोटी-सी थी लेकिन देर तक मुझे परेशान करती रही। मेरे सामने कई सवाल खड़े हो गए जैसे, क्या अनीता के साथ हुई बातचीत से दीपा समझ गई होगी कि गलती करने की वजह क्या थी? क्या अब दोबारा वह इस तरह की गलतियों से खुद को बचा पाएगी? क्या वह अपनी गलतियों को पहचानना सीखने की ओर कुछ कदम बढ़ा पाएगी? क्या वाकई उसने जो किया वह गलत था या अनीता जो कर रही थी वह गलत था या दोनों के तरीकों में कुछ सही और कुछ गलत? अगर दीपा और अनीता के तरीकों में कुछ गलत था तो उसे दुरुस्त करने का सही तरीका क्या हो सकता था?

गलती किसकी?

दीपा के नजरिए से देखें, तो उसने कोई ‘गलती’ नहीं की। अध्यापक द्वारा सिखाई गई गणनविधि का इस्तेमाल करते हुए सवाल को हल किया। हल करने के पहले कदम पर जो जवाब मिला उस जवाब के ‘सही’ होने पर उसे शंका हुई। उसने अपनी अक्ल का इस्तेमाल करके जवाब के बारे में एक अनुमान लगाया। अनुमान लगाने में उसने उसी पेज पर दिए गए कुछ सवालों को हल करने से मिले अनुभवों का सहारा लिया और इसके आधार पर ‘गलत’ जवाब को ‘सही’ किया।

लेकिन क्या सीखने व सिखाने को लेकर इन दोनों का नजरिया एक-सा है? इस उदाहरण को ही अगर देखें तो हम पहचान सकते हैं कि किसी जवाब पर गलत का ठप्पा कौन लगा रहा है। बच्चों से उनके जवाब के कारण को जाने बगैर उन जवाबों को सही या गलत घोषित कर देने का अधिकार अक्सर बड़े अपने पास सुरक्षित रखते हैं। बड़ों और शिक्षकों के पास किसी भी हल करने के तरीके को सही या गलत साबित करने का कोई तर्क या तरीका होता होगा, जो कि इस मामले में अनीता के पास है भी, यानी एक ही जवाब के सही या गलत होने को लेकर बड़े व बच्चों का एकदम उलट नजरिया होना एकदम मुमकिन है।

तो यहाँ पर शिक्षाशास्त्रीय चुनौती यह है कि दो अलग-अलग नजरियों में से उपयुक्त नजरिए की पहचान कैसे की जाए। उनमें से एक नजरिए के साथ उम्र, अनुभव, ज्ञान, समाज की ही नहीं बल्कि एक विशालकाय शिक्षा तंत्र की ताकत भी है। वहीं दूसरी ओर बच्चों का नजरिया जिसे अक्सर गलत ही ठहराया जाता है। या कोई तीसरा रास्ता भी है जिसमें बड़े खुद अपने नजरिए की जाँच करें और बच्चों को भी अपने नजरिए की जाँच करने को बढ़ावा दें ताकि दोनों किसी एक आम राय पर पहुँच सकें।

तीसरे रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए जरूरी है कि शिक्षक अगली दो बातें स्वीकार करें। पहली, कि उनके नजरिए में भी कोई खोट हो सकती है, वे भी गलत हो सकते हैं। दूसरा, बच्चों के पास अपने किए कामों की कोई-न-कोई वजह होती है। पूछे जाने पर या मौका मिलने पर वे अपनी वजहों, चाहे वे आपको कितनी भी अजीब क्यों न लगें, को अपने शब्दों में बयान कर सकते हैं या बयान करना सीख सकते हैं।

आपने गौर किया होगा कि उपरोक्त घटना में अनीता का ज्‍यादा जोर गलत जवाब को सही करवा देने पर है। यह सही है कि दीपा ने सही जवाब को काटकर गलत कर दिया है लेकिन उसके पास गणनविधि के तरीके से हासिल जवाब के ‘सही’ होने पर एक शंका है (जिस पर आगे बात की जाएगी), जिसकी वजह से वह उस जवाब पर दोबारा विचार करके उसे बदलने पर मजबूर होती है। तो पहला सवाल यह है कि बच्चों द्वारा की गई गलतियों के साथ कैसा बरताव किया जाए?

गलती के साथ बरताव

आमतौर पर बच्चों द्वारा ‘गलती’ करने पर उन्हें तुरन्त अपनी गलती का एहसास करवाकर, उसमें सुधार करवाना एक बहुत ही मशहूर तरीका है जिसे आम अभिभावक से लेकर पेशेवर अध्यापिकाएँ तक सभी धड़ल्ले से काम में लेते हैं। लेकिन इस तरीके की कई समस्याएँ हैं जैसे कि, यह गलती को तय करने का जिम्‍मा बड़ों व अध्यापकों पर छोड़ देता है। इसमें बच्चों के पास अपनी ‘गलती’ की वजह को समझाने का मौका नहीं होता। इस तरीके में बच्चों द्वारा किसी भी वजह से गलती न सुधारे जाने पर बहुत जल्दी सजा की राह पकड़ ली जाती है, जिससे सीखना तो कहीं गुम-सा हो जाता है। अगर आप सीखने या अभ्यास के दौरान की गई गलतियों को जुर्म मानते हैं तो बच्चों के लिए उसकी सजा से बच पाना नामुमकिन-सा है और अगर आप ‘गलती’ को सीखी हुई चीजों या सीखने में आ रही मुश्किलों का संकेत मानते हैं तो आपके सामने कई रास्ते खुल जाते हैं।

अगर बड़े किसी जवाब को हासिल करने का सिर्फ एक ही तरीका जानते हैं तो हमारे पास उस गलती की वजहों का अनुमान लगाने की सिर्फ एक ही कसौटी होती है। अगर हम यह मानते हैं कि किसी जवाब पर पहुँचने के कई तरीके हो सकते हैं तो हम अकेले यह तय नहीं कर सकते कि दूसरों द्वारा की गई फलाँ गलती की ठीक-ठीक वजह क्या हो सकती है।

गलती की पहचान करते वक्त कई चीजों को ध्यान में रखने की जरूरत होती है। जैसे सीखी जा रही अवधारणा के विभिन्न पहलू, उस अवधारणा का अन्य अवधारणाओं के साथ सम्बन्ध, अवधारणाओं को सिखाने के एक या उससे ज्‍यादा तरीके, अवधारणा के बारे में सोचने के तरीके, किसी समस्या से जूझने की कार्यनीतियाँ आदि।

गलती की पहचान दो चीजों पर निर्भर करती है - सिखाई जा रही विषयवस्तु और सिखाने के तरीके। सिखाने के तरीकों का सम्बन्ध उस विषय को सिखाने के व्यापक मकसदों से भी जुड़ा होता है जैसे अगर गणित सिखाने का व्यापक मकसद गणितीय तौर-तरीकों से सोचना या चिन्तन का गणितीयकरण करना है, जैसा कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 में कहा भी गया है, तो गणितीय चिन्तन के तौर तरीकों का विकास करना किसी भी अवधारणा को सिखाने के तरीके की बुनियादी शर्त बन जाता है। इसकी गैर-मौजूदगी में आप गणित को रटवा तो सकते हैं लेकिन समझा कर सिखा नहीं सकते। यह बात और है कि आपकी रटवाई गणित से भी बच्चे अपने बूते पर कुछ-न-कुछ गणितीय-करण तो कर ही लेते हैं।

गलती की पहचान

गलतियों को पहचानने में दूसरों की मदद करने का सबसे आसान तरीका यह होता है कि शिक्षक या अभिभावक बच्ची को उसकी गलती व उसे दुरुस्त करने का तरीका बता दें। इस तरीके की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें सीखने वाले को अपनी अक्ल का धेला भी खर्च नहीं करना पड़ता। उसे सिर्फ बड़ों द्वारा बताई गई गलती को बड़ों द्वारा बताए गए तरीके से दुरुस्त भर करना होता है। इसमें न तो खुद की ‘गलती’ के बारे में सीखने वाले से कोई राय ली जाती है न ही उसे अपनी गलती की छानबीन का कोई मौका मुहैया करवाया जाता है। बच्ची यह नहीं समझ पाती कि उसकी गलती की पहचान कैसे की गई। नतीजन अगली बार गलती की पहचान उसे फिर से दूसरों से ही करवानी पड़ती है।

इस उदाहरण में अनीता ने दीपा को गलती की वजह व उसे दुरुस्त करने का तरीका खुद ही बता दिया। इसमें भी न तो बच्ची के पास गलती खुद तलाशने और न ही खुद पहचानने के लिए जरूरी औजारों को हासिल करने व उन्हें इस्तेमाल करने का मौका है।

इस पूरी प्रक्रिया में इस सम्भावना की खोजबीन की गुंजाइश खत्म हो जाती है कि आप जिसे गलती समझ रहे हैं, हो सकता है बच्चे की निगाह में वह गलती हो ही नहीं। लेकिन यह तब मुमकिन है जब आप उससे उसकी गलती की वजह जानना चाहें। वैसे भी जब कोई बच्चा अपने जवाब को काटकर दूसरा जवाब लिखता है तो दरअसल वह अपने सवाल को हल करने की गणनविधि पर शक करने, उस पर सवाल उठाने के साथ-साथ उस जवाब पर किसी दूसरे तरीके से भी विचार कर रहा होता है।

अगर बड़ों को लगता है कि बच्चों ने गलती की है तो पहले वे बड़ों की नजर में गलत माने गए काम के पीछे की वजह बच्चों से पूछें। या बच्चे के साथ इस तरह से बातचीत या काम करें कि उसे अपने काम में हुई गड़बड़ खुद नजर आने लगे व हमारे तरीके या समझ में कोई गड़बड़ है तो वह हमें भी दिखने लगे। जब एक बार उसे उसकी और हमें अपनी गड़बड़ नजर आ जाए तो उसे दुरस्त करने के तरीकों को उसे ही खोजने दें। हम बड़े उस खोजबीन में मदद करने के साधन व मौके गढ़ने में उसकी सहायता कर सकते हैं। इसके साथ ही हमें अपनी समझ व तरीकों को दुरुस्त करने के मौके खुद ही गढ़ने पड़ेंगे।

पहला वाला तरीका बड़ों के लिए भी आसान है क्योंकि हमें उस तरीके में अपनी अक्ल ज्‍यादा खर्चनी नहीं पड़ती और दूसरा तरीका सबसे मुश्किल, क्योंकि उस तरीके को काम में लेते ही हमारी अक्ल एक पुख्ता इमारत की जगह हमेशा अधबनी व निरन्तर बदलती रहने वाली इमारत में तब्दील हो जाती है।

गलती को सीखने के मौकों में बदलना

किसी गलती को सीखने के मौके में आप तभी बदल सकते हैं जब आप गलती में छुपी सीखने की सम्भावनाओं को देख पाएँ। तभी आप सीखने वाले को अपनी गलती खुद पहचानने के औजार भी मुहैया करवा सकते हैं।इस गलती में सीखने के कई मौके बनाए जा सकते थे जिनमें से कुछ का ज़िक्र आगे लेख में किया गया है।

जैसे-

किसी समस्या को एक से ज्‍यादा तरीकों से हल करना।गणनात्मक प्रक्रिया से जुड़ी अवधारणात्मक समझ को गहरा करना।खुद के गणितीय अनुभवों को अपनी भाषा में व्यक्त करने से शु डिग्री करके सटीक गणितीय शब्दावली को समझकर इस्तेमाल करने की तरफ बढ़ना आदि।

यह सब हम बड़ों की विषय की विषयवस्तु सम्बन्धी समझ, उसे सिखाने के तरीकों की समझ व उन्हें अमल में लाने की काबिलियत पर निर्भर करता है।


रविवार, 25 जून 2017

कक्षा में एक्शन रिसर्च

बेन गोल्डेकर (2013) तर्क पेश करते हैं कि अध्यापन को प्रमाण पर आधारित व्यवसाय होना चाहिए और कि इससे बच्चों के लिए बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे। विशेष रूप से, वे सुझाते हैं कि संस्कृति में परिवर्तन की जरूरत है, जहाँ शिक्षक और राजनीतिज्ञ स्वीकार करते हैं कि हमें आवश्यक रूप से ‘पता’ नहीं होता कि क्या सबसे अच्छी तरह से काम करता है – हमें प्रमाण चाहिए कि कोई चीज काम करती है।

अनुमान यह होता है कि प्रमाण पर आधारित विधि एक अच्छी चीज है और गोल्डेकर द्वारा अनुशंसित परिवर्तन शिक्षकों द्वारा स्वयं अपने काम का अनुसंधान करके प्राप्त किए जा सकते हैं। वास्तव में, जिन विद्यालयों में अनुसंधान की परिपाटियाँ स्थापित हैं, वहाँ यह मान्यता होती है कि यह बात विद्यालय के सुधार में योगदान कर सकती है।

अपनी कक्षा में अध्ययन शुरू करने वाले शिक्षक के रूप में, यह संभावना है कि वह अपेक्षाकृत छोटे पैमाने और लघु-अवधि का होगा और इस सन्दर्भ में एक्शन रिसर्च की पद्धति भली-भांति काम करती है। एक्शन रिसर्च में काम करने वाले अपने स्वयं के काम की व्यवस्थित ढंग से जाँच करते हैं, ताकि उसमें सुधार कर सकें।

एक्शन रिसर्च में निम्नलिखित चरण शामिल हैं:

कोई समस्या पहचानें जिसे आप अपनी कक्षा में हल करना चाहते हैं: 

यह कोई विशिष्ट बात हो सकती है जैसे क्यों कोई छात्र प्रश्नों का उत्तर नहीं देते हैं या आपके विषय के किसी पहलू को कठिन या निरुत्साहित करने वाला पाते हैं, या यह कोई अधिक साधारण बात हो सकती है जैसे समूह कार्य को प्रभावी ढंग से कैसे आयोजित किया जाय।

प्रयोजन को परिभाषित करें और स्पष्ट करें कि हस्तक्षेप का क्या प्रारूप होगा

इसमें साहित्य का संदर्भ लेना और यह लगाना शामिल होगा कि इस समस्या के बारे में पहले से क्या पता है।

समस्या से निपटने के लिए परिकल्पित किसी हस्तक्षेप की योजना बनाएं।

अनुभवजन्य डेटा जमा करें और उसका विश्लेषण करें। एक और हस्तक्षेप करने की योजना बनाएं: 

यह इस बात पर आधारित होगा कि आपको क्या पता चलता है और उसे आपके द्वारा पहचानी गई समस्या को आगे समझने के लिए परिकल्पित किया जाएगा।

कार्यवाही अनुसंधान एक चक्रीय प्रक्रिया है (चित्र 1)। बारंबार हस्तक्षेप और विश्लेषण करके आप मुद्दे या समस्या को समझने लगेंगे और उसके बारे में शायद कुछ कर पाएंगे।

चित्र क्रियात्मक शोध चक्र


उन प्रश्नों को जिनका आप उत्तर देना चाहेंगे और अपनी पसंद के तरीके को तय कर लेने के बाद, आपको कुछ डेटा एकत्र करना होगा जो आपको प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम बनाएगा। डेटा एकत्र करने के तीन मुख्य तरीके हैं, आप:

काम करते लोगों का अवलोकन कर सकते हैं

प्रश्न पूछ सकते हैं (सर्वेक्षणों के माध्यम से या लोगों से बात करके)

दस्तावेजों का विश्लेषण कर सकते हैं।

चित्र 2 डेटा एकत्र करने की अलग अलग पद्धतियों का संक्षिप्त विवरण प्रदान करता है।

चित्र डेटा एकत्र करने की अलग अलग पद्धतियों का संक्षिप्त विवरण


अपने निष्कर्षों में आश्वस्त होने के लिए आपको डेटा के कई स्रोतों से प्रमाण की जरूरत पड़ेगी। प्रत्येक पद्धति के फायदे और सीमाएं हैं; आपको सुनिश्चित करना होगा कि आप इस तरह से काम करें कि सीमाएं न्यूनतम रहें।

आपको एकत्र किए जाने वाले डेटा की वैधता और विश्वसनीयता दोनों पर विचार करना होगा। यदि कोई बात वैध है तो इसका मतलब यह है कि वह सत्य या भरोसे योग्य है। वैधता की जाँच करने के लिए निम्नलिखित प्रश्न पूछना उपयोगी होता है:


क्या परिणामों का सामान्यीकरण किया जा सकता है? 


कोई व्यक्ति जो आपके अनुसंधान के बारे में सुनता या पढ़ता है, वह अपने अनुभव के आधार पर यह तय कर सकता है तो वह प्रामाणिक है और व्यावहारिक लगता है।

क्या डेटा निष्कर्षों का समर्थन करता है


यह तब अधिक संभव है यदि किसी समयावधि में एक से अधिक स्रोत से डेटा एकत्र किया गया है या यदि निष्कर्षों की जाँच प्रतिभागियों के साथ की गई है।

क्या प्रश्नावली या साक्षात्कार के प्रश्न अनुसंधान के प्रश्नों के साथ स्पष्ट रूप से संबंध स्थापित करते हैं?

विश्वसनीयता एक कठिन अवधारणा है जिसका मतलब दोहराए जा सकने और प्रतिकृति बना सकने से होता है। विश्वसनीयता में वास्तविक जीवन के प्रति निष्ठा, प्रामाणिकता और उत्तरदाताओं के लिए सार्थकता शामिल है। कोहेन और अन्य। (2003) का सुझाव है कि विश्वसनीयता की धारणा का अर्थ ‘निर्भर होने की योग्यता’ होना चाहिए और निर्भर करने की योग्यता की प्राप्ति पर्याप्त डेटा एकत्र करने, अपने निष्कर्षों की जाँच प्रतिभागियों के साथ करने, और उसी विचार के लिए डेटा के एक से अधिक स्रोत से प्रमाण की तलाश करने जैसे कारकों पर निर्भर होती है।

-Aks team

शिक्षा में क्रियात्मक अनुनसंधान आवश्यक

शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान आवश्यक

भा रत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए शिक्षा क्षेएत्र में अनुसंधान कार्य की आवश्यकता है। अनुसंधान एक उद्देश्यपूर्ण और सविचार प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य ज्ञान को बढ़ाना और परिमार्जित करउपयोगी बनाना है। मानव ज्ञान के विकास के लिए अनुसंधान अत्यावश्यक है और तभी जीवन का विकास संभव है। अनुंधान एक उद्देश्यपूर्ण बौद्धिक क्रिया है, इसकी प्रक्रिया वैज्ञानिक होती है।

क्रियात्मक अनुसंधान वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यवहारिक कार्यकर्ता वैज्ञानिक विधि से अपनी समस्याओं का अध्ययन अपने निर्णय और क्रियाओं मे निर्देशन, सुधार और मूल्यांकन करते है। शिक्षा के क्षेत्र में समस्यायें बहुत है। क्रियात्मक अनुसंधान कक्षा कक्ष की विभिन्न स्थितियों की समस्याओं का हल खोजने, निदानात्मक मूल्यांकन और उपचारात्मक उपाय करने की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण, उपयोगी और सामयिक सिद्ध होता है। निःसंदेह शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान का लक्ष्य नवीन शैक्षिक ज्ञान की खोज है जो उन समस्याओं को हल करने हेतु अनुसंधान शिक्षा के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं के निदान एवं उपचार में पर्याप्त सीमा तक उपयुक्त एवं कारगर सिद्ध होता है।

क्रियात्मक अनुसंधानों का अभिप्रयास उन अनुसंधानों से है जिनका प्रमुख उद्देश्य शिक्षण संस्थानों की व्यावहारिक समस्याओं का हल खोजना है। शिक्षण के क्षेत्र में अब तक प्रायः मौलिक अनुसंधान एवं व्यावहारिक अनुसंधान होते आए हैं। इन दोनों प्रकार के अनुसंधानों में अनुसंधानकर्ता के लिए विद्यालय के जीवन से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होना आवश्यक नहीं है। इस समस्या को हल करने के लिए शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान का विकास हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसंधान का विचार सबसे पहले अमेरिका के कुछ शिक्षाशास्त्रियों द्वारा आरंभ किया गया था। इसमें प्रमुख रूप से कोलियर, लुइन, हेरिकन और स्टोफेन कोरे शामिल थे। स्टोफेन कोरे के मुताबिक क्रियात्मक अनुसंधान का अभिप्राय उस प्रतिक्रिया से है जिसके द्वारा अभ्यासकर्ता अपने निर्णयों तथा प्रतिक्रियाओं का पथ-निर्देशन एवं मूल्यांकन करने के लिए अपनी समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने के प्रयत्न करते हैं।

किसी भी व्यवस्था को भली प्रकार संचालन के लिए उसके सदस्य ही उत्तरदायी होते है। उनके समक्ष समस्याएं आती है, उसकी गहनता को कार्यकर्ता ही भली प्रकार समझ सकता है। अतः कार्यकर्ता को कार्यप्रणाली की समस्या के चयन करने तथा उसके समाधान ढूंढने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए तभी वह अपने कार्य कौशल का विकास कर सकता है। कार्यकर्ता द्वारा स्वयं की कार्यप्रणाली की समस्या का चयन करने, उसका वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने एवं समाधान ढूंढकर वर्तमान क्रिया में सुधार करने की प्रक्रिया को क्रियात्मक अनुसंधान कहते है।

क्रियात्मक अनुसंधान इस प्रकार अनुसंधान की नवीनतम शाखाओं में से एक है। संक्षेप में कह सकते हैं, क्रियात्मक अनुसंधान का अभिप्राय विद्यालय में संपादित की गई उस क्रिया है से जिसके द्वारा विद्यालय की कार्य-प्रणाली में सुधार, संशोधन एवं प्रगति के लिए विद्यालय के ही अभ्यासकर्ता जैसे-शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक तथा निरीक्षक विद्यालय की समस्याओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करते हैं।
क्रियात्मक अनुसंधान की प्रमुख विशेषता
क्रियात्मक अनुसंधान में विद्यालय की समस्याओं का विधिपूर्वक अध्ययन होता है। इसमें अनुसंधानकर्ता विद्यालय के शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक और निरीक्षक स्वयं ही होते हैं। इस अनुसंधान का मुख्य उद्देश्य विद्यालय की कार्यप्रणाली में संशोधन कर सुधार लाना है। क्रियात्मक अनुसंधान में संपादित करने में शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक और निरीक्षक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाते हैं। अनुसंधान के अंतर्गत तत्कालीन प्रयोग पर अधिक बल देते हैं। क्रियात्मक अनुसंधान के उत्पादक और उपभोक्ता दोनों ही स्वयं शिक्षक, प्रधानाध्यापक, प्रबंधक और निरीक्षक होते हैं।  वीवी कामत ने अपने एक लेख में (कैन ए टीचर डू रिसर्च टीचिंग, 1975) भारत में अनुसंधान के कुछ क्षेत्रों का उल्लेख किया, जो इस प्रकार है। भिन्न-भिन्न भाषाओं में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों का शब्द भंडार, भारत में पब्लिक स्कूल, भाषा सीखने में भूलें, विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों की ऐच्छिक क्रियाएं। विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों की लंबाई, भार तथा अन्य शारीरिक लक्षण, भूगोल एवं इतिहास की अध्यापन पद्धतियां शामिल हैं। बालकों एवं बालिकाओं की अध्ययन अभिरूचियां, कुशाग्र बुद्धि बालकों की शिक्षा, मानसिक रूप से पिछड़े बालकों की शिक्षा भी शामिल करने पर जोर था। भारतीय शिक्षाशास्त्रियों का शैक्षणिक क्षेत्र में योगदान, माध्यमिक विद्यालयों में विभिन्न आयु वर्ग के छात्रों एवं छात्रों की मन पसंद क्रियाएं (हाबीज) पर भी जोर दिया गया था। प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों की शैक्षिक योग्यताएं, नगर तथा ग्रामीण क्षेत्रों के छात्रों की उपलब्धियों में अंतर, शिशु विद्यालयों में पढ़े हुए तथा न पढ़े हुए बच्चों का तुलनात्मक अध्ययन की बात कही गई थी।
इन सूचियों पर गौर करने से इनमें कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो क्रियात्मक अनुसंधान के अंतर्गत आती है। उन पर अनुसंधान होने से शिक्षा की अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान संभव होगा और वे अनुसंधान राष्ट्र के विकास में सहायक होंगे। शिक्षा में क्रियात्मक अनुसंधान की समस्याओं का स्रोत स्वयं स्कूल होता है। स्कूल की कार्य प्रणाली में प्रत्येक समस्या का उद्गम खोजा जा सकता है। समस्या का उचित चयन करने के बाद उसके स्वरूप का विश्लेषण जरूरी है। इसका अभिप्राय समस्या को निश्चित रूप से स्थापित करना है। ऐसा करना अनुसंधान की सफलता के लिए आवश्यक चरण है। समस्या को परिभाषित करने के बाद उसका मूल्यांकन करना बहुत जरूरी है। इस मूल्यांकन से अनुसंधानकर्ता को समस्या के अपेक्षित परिणाम का ज्ञान हो जाता है। शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों, प्रबंधकों तथा निरीक्षकों को क्रियात्मक अनुसंधान द्वारा कार्य करते हुए सीखने का अवसर मिलता है, जो ज्ञान कार्य करते हुए अर्जित किया जाता है, वह अधिक स्थायी तथा व्यावहारिक होता है।

अनुसंधान जरूरी

भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए अनुसंधान कार्य की जरूरी है। शिक्षा के क्षेत्र में इसकी अधिक आवश्यकता है, क्योंकि अन्य क्षेत्रों में होने वाली उन्नति क्षैक्षिक क्षेत्र में उन्नति पर अवलंबित रहती है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षा में कुछ नवीन और विशिष्ट अनुसंधानों किए जाने आवश्यक है। इन अनुसंधानों में क्रियात्मक अनुसंधान को प्रमुख स्थान देना होगा, क्योंकि इस प्रकार के अनुसंधानों का स्कूलों की गतिविधियों तथा कार्य करने वाले व्यक्तियों से प्रत्यक्ष संबंध होता है। हमारे स्कूल और शिक्षा तब तक परंपरागत लीक पर ही कायम रहेंगे जब तक शिक्षक, शैक्षिक प्रशास, अभिभावक और खुद छात्र इसका मूल्यांकन नहीं करेंगे। शिक्षा में यदि कोई विकास की दिशा दिखाई दे रही है शिक्षित व्यक्ति विद्यालय से बाहर आकर समाज एवं कार्यक्षेत्र में अपने को स्थापित नहीं कर पाता। ऐसी स्थिति के लिए शिक्षा को जवाबदेह माना जाता है, इसलिए इसमें सुधार होना आवश्यक है। इस लिहाज से सभी के सहयोग से क्रियात्मक अनुसंधान किया जाना आवश्यक है। खुद छात्र भी क्रियात्मक अनुसंधान से लाभांवित होंगे। साथ ही वे इसमें सहयोग और अपनी शैक्षिक क्षमता तथा योग्यता विकसित करने के लिए प्रेरित होंगे।

-Aks team