आप भी दो-तीन बच्चों को पूरी क्लास समझते हैं?

‘ख़ास बच्चे’ यानी पूरी क्लास?
सबसे पहले बात करते हैं दो-तीन बच्चों पर ध्यान देने के ख़तरे के बारे में। अगर दो-तीन बच्चे किसी टॉपिक को समझ जाते हैं तो आप मान लेते हैं कि बाकी बच्चों को भी आपकी बात समझ में आ गई है। अगर (भूल से या आदतन) आप भी ऐसा करते हैं तो शायद सतर्क होने की जरूरत है। किसी भी स्कूल में पढ़ाते समय शिक्षण प्रक्रिया की बहुत सी बारीक बातों में कंटेंट, कम्युनिकेशन और चाइल्ड साइकॉलजी की समझ एक बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इस बात को हवा में उड़ाते हुए शायद आप कहें, “अरे! हम तो छोटी कक्षाओं को पढ़ाते हैं वहां ऐसी बड़ी-बड़ी बातों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे स्कूल में आने वाले बच्चों की स्थिति सिटी के बच्चों और विदेशी बच्चों से बहुत अलग है।”
आपकी बात सौ फ़ीसदी सही है मगर आपके स्कूल में पढ़ने के लिए आने वाले छात्र-छात्राएं बच्चे ही हैं इस बात से तो आप इनकार नहीं करेंगे न। अगर वे बच्चे हैं तो बच्चों की मानसिक बुनावट को समझना जरूरी है। उनके व्यवहार को समझना जरूरी है कि वे किस तरह से अपने परिवेश के साथ एक रिश्ता बनाते हैं। बच्चे आख़िर किस तरह से किसी सवाल के समाधान के कैसे अलग-अलग तरीके से सोचते हैं। और सीखने के लिए विशिष्ट तरीका अपनाते हैं।
हर बच्चा अपने तरीके से सीखता है
कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी संदर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नज़रिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।
यहां ग़ौर करने वाली बात है, “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहां दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह के सपोर्ट की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।”
बतौर शिक्षक क्लासरूम में हमारा सभी बच्चों से संवाद हो और हम आख़िरी बच्चे तक पहुंच सकें यह सुनिश्चित करना चाहिए। इस बारे में एक पॉलिसी का विशेषतौर पर उल्लेख किया जाता है कि कोई भी बच्चा छूटे नहीं। अगर हम प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करें तो पहली कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के बच्चों (अंडर एज) के सीखने की रफ़्तार बाकी बच्चों की तुलना में फर्क़ होती है मगर उसका पहली कक्षा में नामांकन उस बच्चे के भविष्य के अँधेरे में धकेले देगा। मगर यह बात उसी शिक्षक को समझ आएगी जो उस बच्चे के व्यवहार को समझने की कोशिश करेगा।
बच्चों को बच्चा समझें
अगर बच्चों को पढ़ाते समय उनको डांटते हैं तो स्कूल में आने वाले नये बच्चों पर क्या असर पड़ता है? वे अपने बड़े भाई-बहन के पास क्यों बैठते हैं? मिशाल के तौर पर स्कूल आने वाली एक छोटी लड़की जिसका उच्चारण बहुत साफ़ है, जिसकी आवाज़ बहुत मीठी है जो अभी स्कूल के माहौल से परिचित हो रही है। स्कूल नाम की संस्था में ढलने की कोशिश कर रही है, अगर उसको न सीखने के लिए डांटा जाता है, उसके ऊपर गुस्सा किया जाता है और वह रोती है तो इसके लिए शिक्षक की बच्चों को बच्चा न समझने वाली परिस्थिति ही ज़्यादा जिम्मेदार है।
किसी कम उम्र के बच्चे को हम न सीखने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया सकते। एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की ख़ुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए।
क्यों गिरता है अधिगम स्तर?
अगर कोई शिक्षक कक्षा के कुछ बच्चों पर ही ध्यान देते हैं तो ऐसी स्थिति में क्या होता है? सारे बच्चों की जिम्मेदारी से आप मुक्ति पा लेते हैं और आपका पूरा ध्यान केवल ‘ख़ास बच्चों’ पर केंद्रित हो जाता है। ऐसे में आप कक्षा की सफलता को उन दो बच्चों की सफलता का पर्याय मान लेते हैं, जिसका परिणाम क्लासरूम में बैठने वाले बाकी बच्चों की उपेक्षा के रूप में सामने आता है।

अपने प्रोफ़ेशन के प्रति समर्पित शिक्षकको ऐसी स्थिति संतुष्टि और ख़ुशी नहीं दे सकती क्योंकि उसे यह बात महसूस होगी कि मैंने सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार नहीं किया है।
पूर्वाग्रहों से बचना जरूरी
इसके साथ ही बच्चों के बारे में पूर्वाग्रहों का सवाल भी सामने आता है। अगर हम बच्चों के बारे में को राय बना लेते हैं कि ये बच्चे तो जंगली हैं। आदिवासी हैं। गाँव के बच्चे हैं। इनके घर वालों की इनकी कोई पड़ी नहीं है। इनको भी घर जाने के बाद पढ़ाई से कोई मतलब नहीं होता। ये बच्चे पढ़ना नहीं सीख सकते। इनको सिखाने के लिए मेहनत करना बेकार है तो ऐसी सोच का असर कभी-कभी काम के जज्बे और तरीके को भी प्रभावित करता है। ऐसे में इस तरह के विचारों से आज़ाद होकर काम करना और बच्चों के बारे में ख़ुद का नये तरह का नज़रिया बनने के लिए अनुभवों की खिड़की को खुला रखना मददगार होता है।
ख़ुद भी सीखते रहें
बतौर शिक्षक आप बच्चों के पठन कौशन, समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की ज़िंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें ख़ुद को वक़्त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरंतर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा क्षेत्र में होने वाले भावी बदलाव को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ क़दमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सके। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें ख़ुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए
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