सोमवार, 27 नवंबर 2017

भारतीय शिक्षा पर आलोचनाओं के तीर क्यों?

भारत की शिक्षा व्यवस्था पर आलोचना के तीर क्यों छोड़े जा रहे हैं?


भारत की गिनती दुनिया की सबसे बड़ी स्कूली शिक्षा व्यवस्था में होती है। इसका अर्थ है कि स्कूली शिक्षा का कारोबार अरबों रूपए का है। मगर शिक्षा का अधिकार क़ानून के तहत 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। इसके साथ ही निजी स्कूलों में भी 25 फ़ीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके से आने वाले बच्चों के लिए आरक्षित की गई हैं। यानि इस कारोबार का बड़ा हिस्सा सरकारी स्कूलों के जिम्मे आता है।

निजीकरण वाली लॉबी

मगर निजी स्कूलों को बढ़ावा देने वाली लॉबी चाहती है कि इस कारोबार में उसे बड़ा हिस्सा मिले, इसके लिए वह मीडिया के साथ-साथ अन्य सर्वेक्षणों का सहारा लेकर भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था को बदनाम करने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है। ताकि सरकारी स्कूलों व शिक्षा व्यवस्था को असफल करार देकर निजी स्कूलों के लिए रास्ता खोला जा सके।
इस बारे में एक संस्था में रिजनेल हेड के तौर पर काम करने वाले मुकेश भागवत कहते हैं, “शिक्षा के क्षेत्र में ‘कूपन सिस्टम’ शुरू करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने वाली लॉबी अपने एजेंडे को लागू करवाने के लिए सक्रिय है। ‘कूपन सिस्टम’ का मतलब है कि सरकार की तरफ से लाभार्थी छात्रों को स्कूल की फीस भरने के लिए एक निश्चित राशि के कूपन उपलब्ध कराए जाएंगे और छात्र अपनी समझ से स्कूलों का चुनाव कर सकेंगे।”

शिक्षा को बाज़ार के प्रभाव से बचाया जा सकता है?


वे आगे कहते हैं, “क्या ऐसी कोई व्यवस्था स्कूली शिक्षा को बाज़ार के प्रभाव से बचा पाएगी? क्या छात्र सही अर्थों में स्वतंत्र चुनाव कर पाएंगे? क्या शिक्षा के अधिकार के वादे का यह समुचित उत्तर है? कहीं ऐसा तो नहीं जो ताक़त सरकारी तंत्र को मजबूत करने में लगनी चाहिए, उस ताक़त की दिशा पहले सरकारी तंत्र को कमज़ोर करने में और फिर उसे बदनाम करने में लगेगी, जो अंततः जानबूझकर कमज़ोर किए गए सरकारी स्कूलों को बाज़ार के निजी स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा में धकेल देगी?
हाल के दिनों में एक रिपोर्ट आयी है जिसमें कहा गया कि स्कूलों से शिक्षकों के अनुपस्थिति होने का प्रतिशत मात्र 2.5 फ़ीसदी है। मगर इसे बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है कि यह 25 या 50 फ़ीसदी के आसपास है। जबकि इस बात में कोई सच्चाई नहीं है।
आप देख सकते हैं कि कैसे एक नैरेटिव गढ़ा जाता है जो सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों और शिक्षा व्यवस्था के उचित प्रबंधन व प्रभावशीलता को संदेह के घेरे में खड़ा कर देता है। इस मुद्दे पर केंद्रित अपने आलेख में अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के सीईओ अनुराग बेहरकहते हैं, “आज जरूरत है कि शिक्षक बदलाव के उत्साही नेतृत्वकर्ता के रूप में खुद सामने आएं। हमें शिक्षकों का सहयोग करने और उनके विकास के लिए निवेश करने की जरूरत है।” वे यह भी कहते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के लिए क्लासरूम में शिक्षण के तरीके और अच्छे विद्यालयी माहौल (स्कूल कल्चर) पर ध्यान देने की जरूरत है।

‘द इकॉनमिस्ट’ की स्टोरी के पीछे क्या है?


8 जून को इकॉनमिस्ट की वेबसाइट पर एक स्टोरी छपती है जिसका शीर्षक है, “भारत ने प्राथमिक शिक्षा को वैश्विक बनाया है, मगर अच्छा नहीं।” इस शीर्षक के बाद की पूरी कहानी भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर आलोचनाओं के बाणों के बौछार सी प्रतीत होती है। यह लेख किसी पेड न्यूज़ वाले कंटेंट जैसा ही प्रतीत होता है जो किसी ख़ास मकसद से लिखे जाते हैं और किसी पक्ष के एजेण्डे से संचालित होते हैं।
“दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था सबसे बदतर है। यह भारतीय मेधा को बरबाद कर रही है। भारत भले ही अपने डॉक्टर्स और इंजीनियर्स के लिए प्रसिद्ध हो मगर वहां के बच्चे स्कूलों में फेल हो रहे हैं। 9 साल के बच्चों की आधी आबादी 9 और 8 नहीं जोड़ पाती है।”
ऐसे शोध का आधार क्या है? क्या इस तरह की कोई रिपोर्ट पहले छपी है। या फिर मन में ही गुणा-गणित करके मोटी-मोटा प्रतिशत निकाल लिया गया ताकि भारतीय शिक्षा व्यवस्था के प्रति उन पूर्वाग्रहों या झूठी अवधारणाओं को हवा दी जा सके जो स्कूल से अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों के प्रतिशत की कहानी जैसी ही है।

वैश्विक स्तर पर ऐसी कहानियों का छपना बताता है कि आज शिक्षा का कारोबार वैश्विक महत्वाकांक्षाओं से भी जुड़ा है। लोग चाहते हैं कि भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी बढ़े। यह बात सच है कि स्कूली शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत है। चुनौतियां गंभीर हैं, मगर स्थिति इतनी भी खराब नहीं है जैसी पेश की जा रही है।
प्रेषित: अध्यापक की सोच

रविवार, 26 नवंबर 2017

डिअर पेरेंट्स : बच्चों को प्यार से पढ़ायें ।।

आपके ह्वाट्सऐप पर भी एक छोटी सी बच्ची का वीडियो आया होगा। इसमें एक माँ अपनी बच्ची को एक से पाँच तक की गिनती सिखा रही होती है। बच्ची दहशत से वन, टू, थ्री, फोर, फाइव पढ़ रही होती है। माँ का निर्देश आता है फिर से सुनाओ। बच्ची भूल जाती है। माँ चीखती कठोर आवाज़ में चीखती हैं वन कहाँ है?

गिनती सिखाइए, मगर ‘प्यार से पढ़ाइए’

शिक्षा दार्शनिक, जॉन डिवी के विचार
जॉन डिवी का मानना था कि शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो स्कूल छोड़ने के बाद भी काम आए।
बच्ची इस सवाल से घबरा जाती है। रोने वाली आवाज़ में वह जल्दी से वन से फाइव तक की गिनती पूरी करती है और माँ से रोते हुए गुजारिश करती है कि प्यार से पढ़ाइए। मेरे कान में दर्द हो रहा है। इतना कहने के बाद वह रोने लगती है। मगर माँ अपनी बेटी की परेशानी को समझने की बजाय फिर से गिनती दोहराने के लिए कहती है।
इस वीडियो को अबतक 50 लाख से ज्यादा बार देखा जा चुका है। इस वीडियो को देखकर लाखों लोगों ने टिप्पणी की है। टाइम्स की रिपोर्टर नैना अरोरा ने इसके बारे में विस्तार से लिखा और वीडियो के पीछे की पूरी कहानी को लोगों के साथ साझा किया।

विराट कोहली, ‘यह वीडियो दिल की तकलीफ पहुंचाने वाला है’

virat-kohliविराट कोहली ने लिखा कि इस वीडियो को देखकर दिल को तकलीफ हुई है।
इस वीडियो के बारे में ट्वीट करते हुए क्रिकेटर विराट कोहली ने इंस्टाग्राम पर लिखा, “बच्चे के दर्द और गुस्से को अनदेखा किया जा रहा है और बच्चे को सिखाने का अहंकार इतना बड़ा है संवेदनशीलत खिड़की से  बाहर चली गयी है। यह धक्का पहुंचाने वाला और दुःखद है। बच्चे पीछे पड़ने से नहीं सीखते हैं। यह दिल को तकलीफ पहुंचाने वाला है।”
क्रिकेटर युवराज सिंह ने लिखा, “आप अपने बच्चों की परवरिश ऐसे ही करेंगे? पैरेंट्स का ऐसा व्यवहार असम्मानजनक और परेशान करने वाला है 😡। बच्चे का ‘सर्वश्रेष्ठ’ प्रदर्शन हो, इसके लिए बच्चे को प्यार और अपनापन चाहिए। यह स्वीकार्य नहीं है। 😤”
इस वीडियो के बारे में क्रिकेटर शिखर धवन लिखते हैं, “मैंने जितने वीडियो देखे हैं, उनमें से यह सबसे ज्यादा परेशान करने वाला है। माता-पिता के रूप में हमें बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी मिली है। हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन्हें मजबूत इंसान के रूप में विकसित करें ताकि जो वो बनना चाहते हैं, बन सकें। मुझे इस महिला द्वारा बच्ची को प्रताड़ित करना घृणित लगा। बच्ची को भावनात्मक, मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताणित किया जा रहा है ताकि वह वन टू फाइव तक की गिनती पढ़ सके!!! किसी इंसान का चरित्र तब बाहर आ जाता है, जब वे किसी से ज्यादा शक्तिशाली होते हैं और वे अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हैं।”
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बच्चों की अच्छे माहौल में परवरिश समय की जरूरत है।
वे आगे लिखते हैं, “जीवन का एक पूरे चक्र की तरह है, मैं प्रार्थना करता हूँ कि यह प्यारी सी बच्ची बड़ी होकर मजबूत बने और यह और बूढ़ी  महिला इस बच्ची के सामने ऐसे ही दया की भीख माँगती नज़र आये। उस समय इस महिला को क्या अपेक्षा करनी चाहिए, एक तमाचे की या फिर शक्तिहीन होने वाले अहसास की।”
“इस महिला को मासूम बच्ची के खिलाफ दुर्व्यवहार के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यह महिला कायर है और धरती के सबसे कमज़ोर इंसानों में से एक है, जो एक छोटी बच्ची के ऊपर धौंस दिखाने की कोशिश कर रही है। सीखना आनंददायी और ख़ुशी देने वाला होना चाहिए।। इसमें डर और नफरत के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण है, मगर एक बच्चे की ख़ुशी से ज्यादा जरूरी कतई नहीं है।”

‘बच्ची बहुत जिद्दी हो गई है’

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तीन साल की बच्ची के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा को जायज नहीं ठहराया जा सकता है।
इस वीडियो के बारे में पूछे जाने पर गायक तोषी ने कहा, “विराट कोहली और शिखर धवन हमारे बारे में नहीं जानते। हमारे बच्चे के बारे में हमें पता है न कि हमारा बच्चा कैसा है! हया का नेचर है वैसा..अगले ही पल वो खेलने चली जाती है। अगर आप उसको छोड़ दो तो वो कहेगी कि मैं मजाक कर रही थी। उसके स्वभाव की वजह से छोड़ देंगे तो वो पढ़ाई भी नहीं कर पायेगी।
परिवार को अपेक्षा नहीं थी कि वीडियो वायरल हो जायेगा। तोषी कहते हैं, “वो वीडियो एक माँ का वीडियो है, अपने भाई और हसबैंड को दिखाने के लिए बनाया था, कि बच्ची बहुत जिद्दी हो गई है। बच्ची के लिए पढ़ाई बहुत जरूरी है। नर्सरी में उसे नंबर सीखने का होमवर्क मिलता है, वह कभी भी नहीं सीख पायेगी। अगर उसके ऊपर ध्यान नहीं दिया गया। वो जो रोना होता है, वो उसी क्षण के लिए था ताकि उसकी माँ उसे पढ़ाए ना और खेलने दे। छोटी बच्ची है. तीन साल की। यह कोई बड़ी बात नहीं है। हर घर में बच्चों की अलग जिद होती है, अलग-अलग तरीके के बच्चे होते हैं। ये बच्ची बहुत ज्यादा जिद्दी है, लेकिन हमारी लाडली है। जब इस वीडियो को देखकर बाकी लोगों को बुरा लग रहा है, वो तो माँ है।”

बच्चे जिद करेंगे तो उनको पढ़ाना-लिखाना छोड़ दें क्या?

तोषी कहते हैं कि ढेढ़ मिनट के वीडियो को देखकर किसी को कोई जजमेंट नहीं बनाना चाहिए। एक माँ की ममता है, “जजमेंट नहीं कर सकते हैं। जिसने उसको 9 महीने कोख में रखा है। अब अगर बच्चे जिद करेंगे तो उनको पढ़ाना-लिखाना छोड़ दें क्या? बच्चों को पालना आसान नहीं होता। मैं शादी-शुदा हूँ और मेरा एक बेटा है। मैं जानता हूँ कि किसी बच्चे को पालना कितना मुश्किल है। पैरेंट्स के पास दोहरी जिम्मेदारी है, उन्हें एक साथ घर और बच्चों दोनों को संभालना होता है।”

बच्चे को जिद्दी बताने वाली बात पर स्वाती बख़्शी कहती हैं, ” बच्चा ज़िद्दी हो ना हो लेकिन माता श्री का कर्कश स्वर और ऊंचा सुर उनके ज़िद्दी होने की जो कहानी कह रहा है उसे कोई कैसे जायज़ कह सकता है. अगर 3 साल का बच्चा ज़िद नहीं करेगा तो कौन करेगा.हद है अक्लमंदी की.”

बच्चों की क्षमता पर भरोसा करें और प्रयास को प्रोत्साहित करें

बच्ची के परिवार के लोगों के तर्क पर वृजेश सिंह कहते हैं, “सारे तर्क नासमझी का सबूत हैं और कुछ नहीं। अपने बच्चों के बारे में जो माँ इतनी जजमेंटल है। उसके बारे में लोग अपील कर रहे हैं कि छोटे से वीडियो को देखकर कोई जजमेंट न बनायें। 5 तक की गिनती सिखाने में धैर्य टूट जा रहा है।
“बच्चों के साथ कैसे पेश आएं, यह सीखने के लिए माँ को अन्य पेरेंट्स की मदद लेनी चाहिए। या किसी बाल परामर्श देने वाले मनोवैज्ञानिक से संपर्क करना चाहिए। खुद विशेषज्ञ बन जाने वाली स्थिति खतरनाक है।”
सही पैरेंटिंग का सवाल उठाने में कुछ भी ग़लत नहीं है।
इस वीडियो के बारे में पारूल अग्रवाललिखती हैं, “इस वीडियो पर हँसने वाले सैकड़ों लोग, जो बता रहे हैं कि उनके पैरेंट्स उनकी पिटाई के कैसे-कैसे ‘अनोखे’ तरीके आजमाते थे।, वे केवल यह दिखा रहे हैं कि आज भी वे कितने अज्ञान हैं। भारत में पैरेंटिंग के तौर-तरीकों की अपनी समस्याएं हैं। लेकिन हम संस्कृति का हवाला देकर इसका बचाव नहीं कर सकते हैं। इसे जायज नहीं ठहरा सकते हैं।”
वे आगे कहती हैं, “मैं अपने पैरेंट्स के प्रति शुक्रगुजार हूँ कि आज मैं जो कुछ भी हूँ उनकी वजह से हूँ…लेकिन क्या मैं और बेहतर स्थिति में नहीं होती, अगर कुछ-एक चीज़ें बदल गई होतीं? यही सवाल मैं पूछना चाहती हूँ और ऐसे सवाल पूछा अशोभनीय नहीं है!”

आखिर में कह सकते हैं कि इस वीडियो के बचाव में गढ़े जाने वाले तर्क बच्चों के बारे में हमारी नासमझी को उजागर करते हैं। बच्चों को एक नन्हे नागरिक के रूप में सम्मान देना, बड़ो की जिम्मेदारी है। हर बच्चे के सीखने का तरीका अलग होता है। अगर बच्चा एक तरीके से नहीं सीख रहा है तो अन्य तरीकों से सिखाने का प्रयास करना चाहिए। हर बच्चे को सिखाने का एक ही तरीका अपनाना भी एक तरीके से बच्चों के खिलाफ हिंसा ही है। हमारी संस्कृति में ऐसे मूल्यों को तरजीह देने की जरूरत है जो बच्चों के प्रति समानता और सम्मान के भाव को बढ़ावा देते हों।
प्रेषित : अध्यापक की सोच

गुरुवार, 23 नवंबर 2017

सरकारी स्कूल बने पहली पसंद


बन्द होने के कगार पर रवांडा के निजी स्कूल, सरकारी स्कूल बने लोगों की पहली पसंद


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भारत में दिल्ली सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले बदलाव को एक उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है। यहां भी निजी स्कूलों के सामने सरकारी स्कूल एक बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं।
एनडीटीवी की वेबसाइट पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दिल्ली के उपराज्यपाल अनिल बैजल ने 449 निजी स्कूलों का टेकओवर करने के लिए दिल्ली सरकार के आदेश को मंजूरी दे दी है।
यह आदेश निजी स्कूलों द्वारा मनमानी फीस की वसूली को लेकर की गई है। निजी स्कूलों ने फीस वापसी को लेकर सरकार के आदेश की अनदेखी की थी। निजी स्कूलों की मनमानी के खिलाफ इसे एक बड़े सबक के रूप में देखा जा रहा है।
दिल्‍ली के इन 449 निजी स्‍कूलों को शिक्षा निदेशालय के निर्देश के बाद भी उन्होंने स्कूली बच्चों के परिजनों से ली गई फीस वापस नहीं की थी। इसमें बहुत से नामी निजी स्कूल शामिल हैं।
रवांडा मध्य अफ्रीका में स्थिति एक देश हैं। यहां के सरकारी स्कूलों में होने वाली अच्छी पढ़ाई ने अभिभावकों को भरोसा जीत लिया है। उन्होंने अपने बच्चों का नाम निजी स्कूलों से कटाकर सरकारी स्कूलों में भेजना शुरू कर दिया है। इसके कारण बहुत से निजी स्कूल बंद होने की कगार पर पहुंच गये हैं। इस आशय की रिपोर्ट डेली नेशन में प्रकाशित हुई है। इस ख़बर को भारत में फ़ेसबुक और ह्वाट्सऐप पर शेयर किया जा रहा है। लोग सवाल भी पूछ रहे हैं कि अगर अगर रवांडा जैसे अफ्रीकी देश में ऐसा हो सकता है तो भारत में क्यों नहीं हो सकता है।

‘जो रवांडा में हो रहा है, भारत में भी हो सकता है’


मनोज कुमार जी लिखते हैं, ” रवांडा में अभिभावकों ने प्राइवेट स्कूलों में बच्चों को भेजना बंद कर दिया है क्योंकि सरकारी स्कूलों में काफी बेहतर शिक्षा मिलने लगी है। प्राइवेट स्कूल वहाँ बंद हो रहे हैं। हाँ, ये सचमुच हो रहा है। भारत में भी हो सकता है। भारत का प्रति व्यक्ति जीडीपी दिसंबर 2016 में $ 6092.60 था और रवांडा का $1773.80 । अब अगर आपको लगता है कि भारत में यह नहीं हो सकता हैं तो कम से कम इसका कारण देश की माली हालत तो नहीं है। खोजिए दूसरे कौन से कारण हैं।” आप पिछले दस वर्षों से स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय हैं और शिक्षा के समाजशास्त्र, भाषा-शिक्षण, बाल-साहित्य जैसे विषयों के अध्ययन-अध्यापन से जुड़े हैं।

12 साल की बेसिक शिक्षा नीति की सफलता की कहानी



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रवांडा के सरकारी स्कूलों के चर्चे का गार्डियन से लेकर बहुत से नामचीन पोर्टल और ऑनलाइन पत्रिकाओं में हो रहे हैं। गार्डियन की एक रिपोर्ट कहती हैं, “एक देश जो 1994 में दुनिया के सबसे बुरे नरसंहार के लिए कुख्यात है। यहां की मजबूत और पारदर्शी सरकार का नेतृत्व काबिल-ए-तारीफ है, जिसको दुनिया भ्रष्टाचार के खिलाफ ज़ीरो टालरेंस वाली निति के कारण पहचान रहा है। यहाँ की एक ग़ौर करने वाली कहानी है कि यहां के निजी स्कूल सरकारी संरक्षण के अभाव में बंद होने की कगार पर हैं। जिन संस्थाओं के निजी स्कूल बंद हो रहे हैं, अब वे सरकार से सरकारी फीस पर बच्चों को पढ़ाने के लिए सहयोग करने की माँग कर रहे हैं। लेकिन सरकार ने इस विचार को सिरे से नकार दिया है।”

रिपोर्ट के मुताबिक निजी स्कूलों के लिए परेशानी खड़ी होने की शुरूआत तब हुई जब रवांडा की सरकार ने 12 साल की बेसिक शिक्षा नीति ( the government’s twelve-year basic education policy) पर अमल करना शुरू किया, इस नीति ने सरकारी स्कूलों को लोगों की पहुंच में ला दिया और यह लोगों की पहली पसंद बन गये। इसका सुखद परिणाम हमारे सामने है। 30 से ज्यादा निजी स्कूल अनिश्चितकाल के लिए बंद हो गये हैं, जबकि अन्य निजी स्कूल जिनके बच्चों ने सरकारी स्कूल में प्रवेश ले लिया है अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यहां के सरकारी स्कूल गुणवत्तापूर्ण कौशलों का विकास बच्चों में कर रहे हैं।”

पोस्टेड बाय : अध्यापक की सोच

बुधवार, 22 नवंबर 2017

यदि पाठशाला न होती तो ......!!

गूगल सर्च में कोई खोज रहा था, “यदि पाठशाला न होती?” इससे पता चलता है कि लोगों के दिमाग में ऐसे विचार भी आते हैं, जिनका रिश्ता ‘स्कूल विहीन दुनिया’ से है।

अगर स्कूल न होते तो क्या होता? इस सवाल पर पहली प्रतिक्रिया मिलती है, “पढ़ाई कैसे होती?” इस जवाब से जाहिर है कि हम ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं कर पाते, जिसमें स्कूल न हों। जॉन डिवी ने इसके बारे में लिखा है कि स्कूल समाज की आवश्यकता है।

बच्चों की मौज होती, संग दोस्तों की टोली होती

जब बच्चे स्कूल नहीं जाते हैं तो पैरेंट्स को काफी परेशानी होती है। घर के लोग कहते हैं कि आज स्कूल नहीं है। इसलिए बच्चे इतनी शरारत कर रहे हैं। यानि अगर स्कूल जैसी कोई व्यवस्था नहीं होती तो बच्चों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी क्या होती? उनका समय कैसे बीतता, यह सवाल भी सामने आता है। इसका जवाब हो सकता है कि बच्चे घरेलू कामों को देखते। उनको जो पसंद आता करते। बड़ों की ज़िंदगी को ग़ौर से देखते-समझते। अपने सामाजिक अनुभवों की दुनिया को संपन्न बनाते। ऐसे में वे निरा सैद्धांतिक जीव नहीं होते। उनकी बातों में अनुभव का पुट होता। वे रियल टाइम रिस्पांस करने वाले बच्चे होते। वे स्कूल जाने वाले मासूम बच्चों से बिल्कुल अलग और आत्मविश्वास से लबरेज होते।

हो सकता है बच्चे बड़ों के पीछे-पीछे उनके साथ खेत, कारखाने, कंपनी और काम की जगहों पर जाते। या बड़े उनको कोई काम देकर उलझाकर रखते कि दोपहर या शाम तक इस काम को पूरा कर लेना। जैसा की गर्मी की छुट्टियों में ज़्यादार स्कूल किया करते हैं कि छुट्टियों के दिनों की संख्या को ध्यान में रखते हुए ढेर सारा होमवर्क दे देते हैं ताकि बच्चों की पढ़ाई से एक रिश्ता बना रहे। छुट्टियों में भी बच्चे के भीतर स्कूल के होने का अहसास बना रहे। लेकिन अगर स्कूल नहीं होता तो शायद बहुत सारी चीज़ों के देखने, करने, सीखने का तरीका बिल्कुल अलग होता और शायद ज़्यादा व्यावहारिक भी। ऐसे में बहुत सारी चीज़ें लिखित रूप में स्थानांतरित न होकर अनुभवों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक स्थानांतरित होतीं।

सीखने वाले के प्रति सहज आदर का भाव होता

इसके अलावा भी तमाम संभावनाएं हैं कि अगर पाठशाला न होती तो कोई शिक्षक न होता और कोई छात्र न होता। सब अपने-अपने नाम से जाने जाते। जिससे जो सीखता उसके प्रति आदर का भाव रखता। चीज़ों को बेहतर तरीके से करने का रास्ता खोजने पर उसकी तारीफ होती। सबके बीच में एक अलग तरीके का संवाद होता, जो कक्षाओं में होने वाले संवाद से ज़्यादा सहज होता। आसानी से समझ में आने वाला होता। ऐसे में शायद लोगों के घुलने-मिलने को लेकर भी तमाम तरह के आग्रह और पूर्वाग्रह समाज में स्थापित हो गए होते कि बच्चों को ऐसा करना चाहिए, उनसे मिलना चाहिए, उनके पास कुछ सीखने के लिए जाना चाहिए, ऐसे लोगों से दूर रहना चाहिए।
अगर स्कूल नहीं होते तो दिनभर बच्चों को स्कूल में बैठना नहीं पड़ता। छुट्टी होने के बाद बच्चों को जिस खुशी का अहसास होता है, वह खुशी नहीं होती। कई सालों की पढ़ाई के दौरान ज़िंदगी का जो लुफ्त होता है, वे मजे नहीं होते। न कोई शिक्षक दिवस होता, न कोई जयंती होती। न ढेर सारी उबाऊ आदर्शवादी बातें होतीं। न परीक्षा होती और न ही नंबरों की रेस। नंबरों के आधार पर कोई बच्चा तेज़ या कमज़ोर नहीं माना जाता। ऐसे में बाकी कौशलों और व्यावहारिक सूझ-बूझ का ज्यादा महत्व होता। समाज की आवश्यकताओं के अनुसार और पारिवारिक परंपराओं के अनुरूप बच्चे अपने जीवन के अनुभवों को खास दिशा देते। बड़ों की ज़िंदगी पर भी इस बात का काफी फर्क पड़ता। सरकारों को इस बात का रोना नहीं, रोना पड़ता कि शिक्षा के लिए बजट कम है। ऐसे में बजट का बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता।
इस तरह की तमाम संभावनाएं हो सकती हैं। तो अपने हिस्से में आप भी सोचिए कि स्कूल नहीं होते तो क्या होता? क्या हमारे आसपास की दुनिया ऐसी होती या फिर काफी अलग होती।

Posted by : अध्यापक की सोच

सोमवार, 20 नवंबर 2017

दो-तीन बच्चों से नहीं बनती पूरी क्लास

आप भी दो-तीन बच्चों को पूरी क्लास समझते हैं?

किताब पढ़ते बच्चे, अर्ली लिट्रेसी, प्रारंभिक साक्षरता, रीडिंग रिसर्च, भाषा शिक्षणहर दौर में ऐसे शिक्षक होते हैं जो ‘कुछ बच्चों’ को पूरी क्लास मानते हैं। ऐसी मान्यता शिक्षण प्रक्रिया के लिए एक ख़तरे के रूप में सामने आती है। इसके कारण कुछ बच्चों का शैक्षिक स्तर और प्रदर्शन तो बेहतर होता है, मगर बाकी बच्चों का क्या होता है? विस्तार से पढ़िए इस पोस्ट में।
‘ख़ास बच्चे’ यानी पूरी क्लास? 
सबसे पहले बात करते हैं दो-तीन बच्चों पर ध्यान देने के ख़तरे के बारे में। अगर दो-तीन बच्चे किसी टॉपिक को समझ जाते हैं तो आप मान लेते हैं कि बाकी बच्चों को भी आपकी बात समझ में आ गई है। अगर (भूल से या आदतन) आप भी ऐसा करते हैं तो शायद सतर्क होने की जरूरत है। किसी भी स्कूल में पढ़ाते समय शिक्षण प्रक्रिया की बहुत सी बारीक बातों में कंटेंट, कम्युनिकेशन और चाइल्ड साइकॉलजी की समझ एक बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इस बात को हवा में उड़ाते हुए शायद आप कहें, “अरे! हम तो छोटी कक्षाओं को पढ़ाते हैं वहां ऐसी बड़ी-बड़ी बातों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे स्कूल में आने वाले बच्चों की स्थिति सिटी के बच्चों और विदेशी बच्चों से बहुत अलग है।”
आपकी बात सौ फ़ीसदी सही है मगर आपके स्कूल में पढ़ने के लिए आने वाले छात्र-छात्राएं बच्चे ही हैं इस बात से तो आप इनकार नहीं करेंगे न। अगर वे बच्चे हैं तो बच्चों की मानसिक बुनावट को समझना जरूरी है। उनके व्यवहार को समझना जरूरी है कि वे किस तरह से अपने परिवेश के साथ एक रिश्ता बनाते हैं। बच्चे आख़िर किस तरह से किसी सवाल के समाधान के कैसे अलग-अलग तरीके से सोचते हैं। और सीखने के लिए विशिष्ट तरीका अपनाते हैं।

हर बच्चा अपने तरीके से सीखता है

कोई बच्चा बहुत से लोकप्रिय तरीके से सीखता है तो कोई बच्चा अपने विशिष्ट तरीके से किसी विषय को ग्रहण करता है और अपने तरीके से उस पर अपनी समझ का निर्माण करता है। इसी संदर्भ में बच्चों के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। मनोविज्ञान को मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और व्यवहार के वैज्ञानिक अध्ययन के रूप में देखा जाता है। इसी नज़रिये से शिक्षा मनोविज्ञान को भी क्लासरूम के व्यावहारिक परिदृश्य के संदर्भ में देखने की आवश्यकता है।
यहां ग़ौर करने वाली बात है,  “स्कूल में बच्चों को पढ़ाते समय केवल कुछ बच्चों पर ध्यान देने से हम बच्चों का वास्तविक आकलन नहीं कर पाते कि वे क्या सीख रहे हैं? उनको किसी बात को समझने में कहां दिक्कत हो रही है? किस बच्चे को किस तरह के सपोर्ट की जरूरत है। किस बच्चे की क्या खूबी है। किस बच्चे की प्रगति सही दिशा में हो रही है। कौन सा बच्चा लगातार बेहतर प्रदर्शन कर रहा है और उसे आगे बढ़ने के लिए स्वतंत्र रूप से पढ़ने और काम करने के ज़्यादा मौके देने की जरूरत है।”
बतौर शिक्षक क्लासरूम में हमारा सभी बच्चों से संवाद हो और हम आख़िरी बच्चे तक पहुंच सकें यह सुनिश्चित करना चाहिए। इस बारे में एक पॉलिसी का विशेषतौर पर उल्लेख किया जाता है कि कोई भी बच्चा छूटे नहीं। अगर हम प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करें तो पहली कक्षा में पढ़ने वाले कम उम्र के बच्चों (अंडर एज) के सीखने की रफ़्तार बाकी बच्चों की तुलना में फर्क़ होती है मगर उसका पहली कक्षा में नामांकन उस बच्चे के भविष्य के अँधेरे में धकेले देगा। मगर यह बात उसी शिक्षक को समझ आएगी जो उस बच्चे के व्यवहार को समझने की कोशिश करेगा।

बच्चों को बच्चा समझें

अगर बच्चों को पढ़ाते समय उनको डांटते हैं तो स्कूल में आने वाले नये बच्चों पर क्या असर पड़ता है? वे अपने बड़े भाई-बहन के पास क्यों बैठते हैं? मिशाल के तौर पर स्कूल आने वाली एक छोटी लड़की जिसका उच्चारण बहुत साफ़ है, जिसकी आवाज़ बहुत मीठी है जो अभी स्कूल के माहौल से परिचित हो रही है। स्कूल नाम की संस्था में ढलने की कोशिश कर रही है, अगर उसको न सीखने के लिए डांटा जाता है, उसके ऊपर गुस्सा किया जाता है और वह रोती है तो इसके लिए शिक्षक की बच्चों को बच्चा न समझने वाली परिस्थिति ही ज़्यादा जिम्मेदार है।
किसी कम उम्र के बच्चे को हम न सीखने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया सकते। एक शिक्षक को बच्चों के आँसू और बच्चों की ख़ुशी दोनों के लिए सोचना चाहिए।

क्यों गिरता है अधिगम स्तर?

अगर कोई शिक्षक कक्षा के कुछ बच्चों पर ही ध्यान देते हैं तो ऐसी स्थिति में क्या होता है? सारे बच्चों की जिम्मेदारी से आप मुक्ति पा लेते हैं और आपका पूरा ध्यान केवल ‘ख़ास बच्चों’ पर केंद्रित हो जाता है। ऐसे में आप कक्षा की सफलता को उन दो बच्चों की सफलता का पर्याय मान लेते हैं, जिसका परिणाम क्लासरूम में बैठने वाले बाकी बच्चों की उपेक्षा के रूप में सामने आता है।
भारत में शिक्षा का अधिकार क़ानून एक अप्रैल 2010 से लागू किया गया। इसे पाँच साल पूरे हो गए हैं। इसके तहत 6-14 साल तक की उम्र के बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया है। इसका असर पूरी कक्षा के लर्निंग लेवल या अधिगम स्तर पर भी पड़ता है। इसके कारण ‘ख़ास बच्चों’ (तीन-चार बच्चों) के सीखने का ग्राफ़ तो ऊपर बढ़ता है लेकिन अन्य बच्चों के सीखने का ग्राफ़ तेज़ी से नीचे गिरता है, जिसके कारण पूरी कक्षा का औसत प्रदर्शन सामान्य से बहुत नीचे चला जाता है।
अपने प्रोफ़ेशन के प्रति समर्पित शिक्षकको ऐसी स्थिति संतुष्टि और ख़ुशी नहीं दे सकती क्योंकि उसे यह बात महसूस होगी कि मैंने सभी बच्चों के साथ समान व्यवहार नहीं किया है।

पूर्वाग्रहों से बचना जरूरी

इसके साथ ही बच्चों के बारे में पूर्वाग्रहों का सवाल भी सामने आता है। अगर हम बच्चों के बारे में को राय बना लेते हैं कि ये बच्चे तो जंगली हैं। आदिवासी हैं। गाँव के बच्चे हैं। इनके घर वालों की इनकी कोई पड़ी नहीं है। इनको भी घर जाने के बाद पढ़ाई से कोई मतलब नहीं होता। ये बच्चे पढ़ना नहीं सीख सकते। इनको सिखाने के लिए मेहनत करना बेकार है तो ऐसी सोच का असर कभी-कभी काम के जज्बे और तरीके को भी प्रभावित करता है। ऐसे में इस तरह के विचारों से आज़ाद होकर काम करना और बच्चों के बारे में ख़ुद का नये तरह का नज़रिया बनने के लिए अनुभवों की खिड़की को खुला रखना मददगार होता है।

ख़ुद भी सीखते रहें

बतौर शिक्षक आप बच्चों के पठन कौशन, समझ निर्माण व जीवन के प्रति एक व्यापक दृष्टिकोण का निर्माण कर रहे होते हैं। अपने व्यवहार से बच्चों की ज़िंदगी में एक छाप छोड़ रहे होते हैं। ऐसे में हमें ख़ुद को वक़्त के साथ अपडेट करने की जरूरत होती है। इसके लिए निरंतर पढ़ना, लोगों से संवाद करना, शिक्षा क्षेत्र में होने वाले भावी बदलाव को समझना बेहद जरूरी है। ताकि आप समय के साथ क़दमताल करते हुए चल सकें और भावी नागरिकों के निर्माण का काम ज्यादा जिम्मेदारी और सक्रियता के साथ कर सके। इस बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि बतौर शिक्षक हमें ख़ुद भी लगातार सीखने का प्रयास जारी रखना चाहिए