भारत की शिक्षा व्यवस्था पर आलोचना के तीर क्यों छोड़े जा रहे हैं?
भारत की गिनती दुनिया की सबसे बड़ी स्कूली शिक्षा व्यवस्था में होती है। इसका अर्थ है कि स्कूली शिक्षा का कारोबार अरबों रूपए का है। मगर शिक्षा का अधिकार क़ानून के तहत 6 से 14 साल तक के बच्चों के लिए मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। इसके साथ ही निजी स्कूलों में भी 25 फ़ीसदी सीटें आर्थिक रूप से कमज़ोर तबके से आने वाले बच्चों के लिए आरक्षित की गई हैं। यानि इस कारोबार का बड़ा हिस्सा सरकारी स्कूलों के जिम्मे आता है।
निजीकरण वाली लॉबी
मगर निजी स्कूलों को बढ़ावा देने वाली लॉबी चाहती है कि इस कारोबार में उसे बड़ा हिस्सा मिले, इसके लिए वह मीडिया के साथ-साथ अन्य सर्वेक्षणों का सहारा लेकर भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था को बदनाम करने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है। ताकि सरकारी स्कूलों व शिक्षा व्यवस्था को असफल करार देकर निजी स्कूलों के लिए रास्ता खोला जा सके।
इस बारे में एक संस्था में रिजनेल हेड के तौर पर काम करने वाले मुकेश भागवत कहते हैं, “शिक्षा के क्षेत्र में ‘कूपन सिस्टम’ शुरू करने के लिए सरकार पर दबाव बनाने वाली लॉबी अपने एजेंडे को लागू करवाने के लिए सक्रिय है। ‘कूपन सिस्टम’ का मतलब है कि सरकार की तरफ से लाभार्थी छात्रों को स्कूल की फीस भरने के लिए एक निश्चित राशि के कूपन उपलब्ध कराए जाएंगे और छात्र अपनी समझ से स्कूलों का चुनाव कर सकेंगे।”
शिक्षा को बाज़ार के प्रभाव से बचाया जा सकता है?
वे आगे कहते हैं, “क्या ऐसी कोई व्यवस्था स्कूली शिक्षा को बाज़ार के प्रभाव से बचा पाएगी? क्या छात्र सही अर्थों में स्वतंत्र चुनाव कर पाएंगे? क्या शिक्षा के अधिकार के वादे का यह समुचित उत्तर है? कहीं ऐसा तो नहीं जो ताक़त सरकारी तंत्र को मजबूत करने में लगनी चाहिए, उस ताक़त की दिशा पहले सरकारी तंत्र को कमज़ोर करने में और फिर उसे बदनाम करने में लगेगी, जो अंततः जानबूझकर कमज़ोर किए गए सरकारी स्कूलों को बाज़ार के निजी स्कूलों के साथ प्रतिस्पर्धा में धकेल देगी?
हाल के दिनों में एक रिपोर्ट आयी है जिसमें कहा गया कि स्कूलों से शिक्षकों के अनुपस्थिति होने का प्रतिशत मात्र 2.5 फ़ीसदी है। मगर इसे बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है कि यह 25 या 50 फ़ीसदी के आसपास है। जबकि इस बात में कोई सच्चाई नहीं है।
आप देख सकते हैं कि कैसे एक नैरेटिव गढ़ा जाता है जो सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों और शिक्षा व्यवस्था के उचित प्रबंधन व प्रभावशीलता को संदेह के घेरे में खड़ा कर देता है। इस मुद्दे पर केंद्रित अपने आलेख में अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन के सीईओ अनुराग बेहरकहते हैं, “आज जरूरत है कि शिक्षक बदलाव के उत्साही नेतृत्वकर्ता के रूप में खुद सामने आएं। हमें शिक्षकों का सहयोग करने और उनके विकास के लिए निवेश करने की जरूरत है।” वे यह भी कहते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के लिए क्लासरूम में शिक्षण के तरीके और अच्छे विद्यालयी माहौल (स्कूल कल्चर) पर ध्यान देने की जरूरत है।
‘द इकॉनमिस्ट’ की स्टोरी के पीछे क्या है?
8 जून को इकॉनमिस्ट की वेबसाइट पर एक स्टोरी छपती है जिसका शीर्षक है, “भारत ने प्राथमिक शिक्षा को वैश्विक बनाया है, मगर अच्छा नहीं।” इस शीर्षक के बाद की पूरी कहानी भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था पर आलोचनाओं के बाणों के बौछार सी प्रतीत होती है। यह लेख किसी पेड न्यूज़ वाले कंटेंट जैसा ही प्रतीत होता है जो किसी ख़ास मकसद से लिखे जाते हैं और किसी पक्ष के एजेण्डे से संचालित होते हैं।
“दुनिया की सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था सबसे बदतर है। यह भारतीय मेधा को बरबाद कर रही है। भारत भले ही अपने डॉक्टर्स और इंजीनियर्स के लिए प्रसिद्ध हो मगर वहां के बच्चे स्कूलों में फेल हो रहे हैं। 9 साल के बच्चों की आधी आबादी 9 और 8 नहीं जोड़ पाती है।”
ऐसे शोध का आधार क्या है? क्या इस तरह की कोई रिपोर्ट पहले छपी है। या फिर मन में ही गुणा-गणित करके मोटी-मोटा प्रतिशत निकाल लिया गया ताकि भारतीय शिक्षा व्यवस्था के प्रति उन पूर्वाग्रहों या झूठी अवधारणाओं को हवा दी जा सके जो स्कूल से अनुपस्थित रहने वाले शिक्षकों के प्रतिशत की कहानी जैसी ही है।
वैश्विक स्तर पर ऐसी कहानियों का छपना बताता है कि आज शिक्षा का कारोबार वैश्विक महत्वाकांक्षाओं से भी जुड़ा है। लोग चाहते हैं कि भारत की स्कूली शिक्षा व्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी बढ़े। यह बात सच है कि स्कूली शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव की जरूरत है। चुनौतियां गंभीर हैं, मगर स्थिति इतनी भी खराब नहीं है जैसी पेश की जा रही है।
प्रेषित: अध्यापक की सोच