मंगलवार, 19 मई 2020

भय या फिर शिक्षण

एक दिन स्टाफ रूम में बैठे हुए प्रथम विश्वयुद्ध के कारणों का विश्लेषण करने में तल्लीन था कि सहसा मेरे सामने वाले मेज पर कुछ गिरने की आवाज़ ने मुझे विचलित कर दिया। मैंने नज़र उठा के देखा तो मैडम ने अपनी किताब जोर से पटक दी थी। उनका चेहरा उतरा हुआ था। हाँ, गुस्सा जरूर था उनके अन्दर लेकिन उससे कहीं ज्यादा उनकी परेशानी उनके चेहरे से झलक रही थी। मैं उनके इस व्याकुल चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर ही रहा था कि उन्होंने बड़े व्यथित मन से मुझसे एक प्रश्न पूछा, ‘ सर ! बच्चे मुझसे डरते क्यों नहीं हैं ?’ 
मैं सारा मामला समझ चुका था। मैडम को लगता था कि बच्चे उनकी कक्षा में शान्त नहीं रहते, शरारत करते हैं, हूटिंग करते हैं या फिर उनकी बातों को गम्भीरता से नहीं लेते तो इसमें कसूर उनके डील-डौल का है। दरअसल मैडम कद में औसत से थोड़ी छोटी, थोड़ा दुबली थीं। और फिर अभी अभी तो एम.एससी. कर के आई थीं। यानी वे स्‍वयं विद्यार्थी नजर आती थीं। 

मैंने मुस्कुराते हुए मैडम के प्रश्न को स्वीकार किया और उन्हें पीने को ठण्डा पानी दिया। वे  अब मुझ पर झल्ला पड़ीं,  ‘मुझे बच्चों को हैंडल करना मुश्किल हो रहा है और आप मुस्कुरा रहे हैं?’ 

दरअसल मैं इसलिए मुस्कुरा रहा था क्योंकि ये वही बच्चे थे जो मेरी क्लास में पढ़ने के लिए बैचैन रहते थे। मैंने मैडम से कहा कि मेरे पास एक समाधान है जो मैं आपको कल बताऊँगा। ऐसा कहकर मैंने उनकी व्यथा को थोड़ा कम करने का प्रयास किया।

घर जाकर मैंने इस बारे में मंथन किया। अगर वो बच्चे सच में इतने नटखट होते तो मुझे भी परेशान करते। तो आखिर समस्या कहाँ थी ?क्या शिक्षक बच्चों को डराने के लिए नियुक्त किया जाता है? या फिर पढ़ाने के लिए?

आज तक एक आम शिक्षक की मानसिकता यही बनी हुई है कि जितना बच्चे हमसे डरेंगे हम उतना उन पर प्रभुत्व स्थापित कर सकते हैं। परन्तु यह तो तानाशाही है। यही कारण है कि गणित, विज्ञान और अंग्रेजी जैसे आसान और रुचिकर विषयों से भी विद्यार्थी दूर भागते हैं। क्योंकि इन्‍हें पढ़ाने वाले कई शिक्षक खुद को विशेषाधिकार प्राप्त मानते हैं कि वे जितना कठोर होंगे उनकी पहचान उतनी अलग होगी। मैंने खुद अपने विद्यार्थी जीवन में देखा है कि जो गुरु जी बहुत ज्यादा मारते हैं, उनमें से अधिकांश इन तीन विषयों के अध्यापक ही होते थे। दूसरे विषयों को आसान मानकर गुरु जी बिना मारे ही पाठ्यक्रम पूरा कर दिया करते थे।

बच्चे के मन में अध्यापक के प्रति बैठा हुआ डर उसे गलतियाँ करने से रोकता है। लेकिन जब तक वे गलतियाँ नहीं करेंगे वे ठीक से सीख नहीं सकते। लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि यदि बच्चे आपसे बिल्कुल नहीं डरते तो वे सब कुछ सीख जाएँगे। यदि आपके शिक्षण में नीरसता है, आनन्द का अभाव है, कुछ भी नया नहीं है, सब कुछ बासी है तो बच्चे वही करेंगे जो मैडम की क्लास में किया था। या तो वे सोयेंगे या खोएँगे । यदि आप उनको यह भी नहीं करने देंगे, तो वे बाते करेंगे, हूटिंग करेंगे और आपके डाँटने पर हो सकता है अभद्र व्यव्हार भी करने लगें। यदि आप पाठ को रुचिकर बनाना जानते हैं तो आपकी उम्र क्या है, आपकी योग्यता क्या है, आप शारीरिक रूप से कितने बलवान हैं, कैसे दिखते हैं – कोई फर्क नहीं पड़ता। बच्चे आपकी हर बात सुनेंगे, समझेंगे और इतना ही नहीं, हमेशा याद भी रखेंगे।
बालमन बहुत चंचल होता है, हमेशा रुचिकर चीजों की ओर ही भागता है। एक बार मैंने एक विद्यार्थी की रफ कॉपी अचानक उठा ली तो वह सहम गया। मुझे यह समझते देर न लगी कि कॉपी में जरूर कुछ असामान्य है। देखा तो कॉपी के पीछे के पन्नों में बहुत ही खूबसूरती से कार्टून बनाए हुए थे। बारीकी इतनी, मानो प्रिंटेड हों।
मैंने उसे खड़े होने को कहा और शाबाशी दी। उसका चेहरा खिल उठा। शायद उसने सोचा था की मार पड़ेगी लेकिन हुआ एकदम विपरीत। अक्सर शिक्षक बच्चों को कॉपी के पीछे कुछ भी लिखे होने पर दण्ड देते हैं। परन्तु मेरा यह अवलोकन रहा है कि बच्चों की वास्तविक प्रतिभा इन्हीं रफ और पीछे के पन्नों पर देखने को मिलती है। यदि बच्चा कुछ सीख रहा है तो क्या फर्क पड़ता कि वह रफ कॉपी है या फेयर।


यदि बच्चों को इन पन्नों पर कुछ उकेरने के लिए डराया जाएगा तो वे अपनी कल्पना को मूर्त रुप कहाँ पर देंगे?

कहने का आशय यह है कि डर चाहे अध्यापक के प्रति हो, विषय के प्रति हो, गृहकार्य के प्रति हो या फिर परिणाम के प्रति, बच्चे को सीखने से रोकता है। अध्यापक का सौहार्दपूर्ण व्यवहार, रुचिकर पुस्तकें, विनोदपरक गृहकार्य बच्चे को पढ़ने, लिखने और सीखने के लिए पुनर्बलन प्रदान करता है। अतः स्वयं को जितना सरल और मधुर बना सकें बनाने का प्रयत्न करें, यह भी शिक्षा व्यवस्था में एक योगदान होगा।


पंकज यादव,अज़ीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन, पौड़ी, उत्‍तराखण्‍ड  चित्र : प्रशांत सोनी

प्रेषित
Adhyapak ki Soch

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें