सोमवार, 15 अक्टूबर 2018

सरकारी स्कूल में लौटता भरोसा

1 ) सरकारी स्‍कूलों में लौटता भरोसा : एक

यह शिक्षा के निजीकरण का दौर है। यह देश के अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों से उनके डॉक्टर, इंजीनियर बनने के सपनों के छिन जाने का दौर है। यह महँगी फीस, महँगे स्कूल और उम्दा पढ़ाई के नाम पर अमीर तथा गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की खाई को और भी ज्यादा चौड़ा कर देने का दौर है। यह अमीरों के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों का दौर है। इसलिए, यह गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ देने का दौर है। इस दौर में हम देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत किस तरह बद से बदतर बना दी जा रही है। लेकिन, जरा ठहरिए! यह दूर—दराज के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शिक्षक और समुदायों के साझा संघर्षों का भी दौर है जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की नींव बन रहे हैं। महाराष्ट्र के सांगली जिले के गाँवों से ऐसे ही स्कूलों की कहानियाँ, जिनमें बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही हैं। ये दृश्य साधारण हैं। लेकिन, इनके पीछे छिपी कहानी असाधारण है। फिलहाल ऐसे छह स्‍कूलों की कहानियों को दर्ज  किया गया है। यहॉं प्रस्‍तुत है पहली कहानी। 
यमाजी पाटलीची वाड़ी शाला
महाराष्ट्र के पुणे शहर के सड़क मार्ग से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर यह है यमाजी पाटलीची वाड़ी की प्राथमिक पाठशाला। इस पाठशाला की विशेषता इस वाड़ी (ग्राम) की सम्‍पन्‍नता के बीच मौजूद है।
कोई दो हजार की आबादी वाली इस बसाहट के ज्यादातर बाशिन्दे सोने की कारीगरी के कारण दक्षिण भारत के कई बड़े शहरों के सोना व्यापारियों से जुड़े हैं। साथ ही यहाँ अनार और अंगूर की भी अच्छी पैदावार होती है। लिहाजा, धनी लोगों की इस वाड़ी में सुख-सुविधा की हर चीज उपलब्ध है, बल्कि यहाँ की गलियों में घूमकर तो लगता है जैसे हम पुणे जैसे बड़े शहर की किसी पॉश कॉलोनी में घूम रहे हैं। हालाँकि, यह मुख्य सड़क से बहुत अन्‍दर एक सुन्‍दर और व्यवस्थित वाड़ी है, इसके बावजूद संकरी-पक्की सड़क से होकर प्राइवेट बसें भी आती-जाती हैं।
फिर भी यहाँ अब तक नहीं पहुँची है तो प्राइवेट स्कूल की कोई संस्था। वजह है कि यहाँ के लोगों ने हर बार अच्छी शिक्षा के नाम पर महँगी फीस वसूलने वाले स्कूलों के पैर जमने से रोका। यहाँ के लोगों ने अपनी वाड़ी के सरकारी स्कूल पर भरोसा किया, टीचरों का सहयोग किया और अपने बच्चों को प्रोत्साहित किया, जिसकी बदौलत यहाँ के होनहार बच्चों ने शिक्षा के क्षेत्र में नाम हासिल किया है। यहाँ न सिर्फ बच्चों की शत-प्रतिशत उपस्थिति देखी जा सकती है, बल्कि इनमें अच्छे संवैधानिक नागरिक बनने की संभावनाएँ भी देखी जा सकती हैं।
खास बात यह है कि इस स्कूल के सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं के बच्चे भी यहीं पढ़ते हैं। यहाँ कुल 104 बच्चों को पढ़ाने के लिए दो शिक्षिकाएँ और एक शिक्षक हैं। शिक्षिका साधना चव्हाण बताती हैं, "मेरा बेटा भी यहीं से पढ़कर निकला है। वह अब आठवीं कक्षा में पढ़ता है। ऐसा इसलिए कि हमें खुद अपने पढ़ाने के कौशल पर विश्वास है।" दूसरी तरफ, इस तरह की पहल से सरकारी स्कूल पर लोगों का विश्वास और ज्यादा बढ़ जाता है।
संक्षेप में कहें तो शिक्षा के निजीकरण के इस दौर में जहाँ गाँव-गाँव तक व्यवसायिक स्कूली संस्‍थाएँ खुल गई हैं, वहीं यमाजी पटलीची वाड़ी की पाठशाला उम्मीद के टापू की तरह दिखती है। इस पाठशाला ने अपनी स्थापना के 58 वर्ष पूरे कर लिए हैं। मतलब इस पाठशाला की तीसरी पीढ़ी तैयार हो रही है। इस पीढ़ी की विशेष बात है कि यह सीखने-सीखने की प्रक्रिया को रटने की बजाय गतिविधियों के माध्यम से सीख रही है। यही विशेषता उन्हें पिछली पीढ़ियों से अलग पहचान दिला रही है।
लेकिन इससे भी ज्यादा खुशी की बात यह है कि यहाँ यह इस तरह की विशेषता वाली इकलौती पाठशाला नहीं है। इसके अलावा इस इलाके के कई गाँवों की कई पाठशालाएँ शिक्षा की गुणवत्ता और शिक्षण की विशेष पद्धति के कारण अपनी पहचान बना रही हैं।

2) सरकारी स्‍कूलों में लौटता भरोसा : दो


यह शिक्षा के निजीकरण का दौर है। यह देश के अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों से उनके डॉक्टर, इंजीनियर बनने के सपनों के छिन जाने का दौर है। यह महँगी फीस, महँगे स्कूल और उम्दा पढ़ाई के नाम पर अमीर तथा गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की खाई को और भी ज्यादा चौड़ा कर देने का दौर है। यह अमीरों के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों का दौर है। इसलिए, यह गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ देने का दौर है। इस दौर में हम देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत किस तरह बद से बदतर बना दी जा रही है। लेकिन, जरा ठहरिए! यह दूर—दराज के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शिक्षक और समुदायों के साझा संघर्षों का भी दौर है जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की नींव बन रहे हैं। महाराष्ट्र के सांगली जिले के गाँवों से ऐसे ही स्कूलों की कहानियाँ, जिनमें बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही हैं।  फिलहाल ऐसे छह स्‍कूलों की कहानियों को दर्ज  किया गया है। यहॉं प्रस्‍तुत है दूसरी कहानी।   
तुलाराम बुआचा शाला
एक स्कूल की इन तस्वीरों में आश्चर्यजनक जैसा कुछ भी नहीं दिखता। इसके बावजूद इनमें हैरान करने वाली बात तो है। हैरान करने वाली बात यह है कि इस जगह पर स्कूल कैसे हो सकता है!
ये तस्वीरें हैं तुलाराम बुआचा मराठी शाला की। यह महाराष्ट्र में शोलापुर सीमा से सटे जिला परिषद, सांगली की एक प्राथमिक शाला है।
सांगली से 90 किलोमीटर दूर आटपाडी नाम का कस्बा है। स्टेट हाइवे के सहारे दो-सवा दो घण्‍टे में जिले के इस तहसील मुख्यालय तक पहुँचा जा सकता है। इसके बाद, इस कस्बे से एक वन-वे सड़क वीरान इलाके की ओर जाती है। यहाँ से करीब 12 किलोमीटर दूर शेडफले नाम का एक गाँव है। यदि आपके पास अपना कोई वाहन नहीं है तो आटपाडी से शेडफले जाना तकलीफदेह साबित हो सकता है। वजह है कि इस रूट पर राज्य परिवहन की इक्का-दुक्का बसें ही चलती हैं। वहीं, बहुत कम सवारियाँ मिलने के कारण शेयर ऑटो वाले भी इस ओर आना पसन्‍द नहीं करते। लेकिन, शेडफले में स्कूल है और यहाँ स्कूल होने में आश्चर्य करने जैसी कोई बात नहीं।
यहाँ से अनार आदि के खेतों से होकर एक कच्चा और उबड़-खाबड़ रास्ता सोलापुर जिले की सीमा की ओर जाता है। हमारी पैदल यात्रा शुरू होती है यहाँ से। साथ हैं महाराष्ट्र के सरकारी स्कूलों में संचालित मूल्यवर्धन कार्यक्रम में मास्टर ट्रेनर सुनील चौधरी और यहाँ की 12 शालाओं की केंद्र प्रभारी मीना गायकवाड़। यहाँ से गुजरते हुए दूर-दूर तक कोई बस्ती तो क्या आदमी भी नजर नहीं आता। शेडफले गाँव से करीब छह किलोमीटर दूर जंगल से घिरी एक छोटी पहाड़ी पर चढ़ते हुए यदि मीना गायकवाड़ सही दिशा नहीं बतातीं तो हम एक दूसरी ही पगडंडी पकड़ लेते।
और फिर कोई सौ कदमों की दूरी से एक सुन्‍दर और छोटी शाला का भवन दिखने पर हमें खुशी होती है, लेकिन इस जिज्ञासा के साथ कि यहाँ पढ़ने के लिए कितने बच्चे आते होंगे? नजदीक आने पर शाला के शिक्षक सुनील गायकवाड़ हमारा स्वागत करके शाला के भीतर के एक कमरे में ले जाते हैं। इस कमरे में कुल 12 बच्चे पढ़ाई में तल्लीन हैं, जबकि दूसरे कमरे में 8 बच्चे बिना शिक्षक के पढ़ रहे हैं। 20 बच्चे और दो कमरों की शाला में सुनील गायकवाड़ अकेले शिक्षक हैं। यह जब एक कमरे में साथ बैठे दो कक्षाओं के बच्चों को पढ़ाते हैं तो दूसरे कमरे में बैठे दो अलग-अलग कक्षाओं के बच्चे एक साथ बगैर शिक्षक के अनुशासित ढंग से खुद पढ़ना-लिखना सीख रहे होते हैं।
सुनील बताते हैं, "इससे फायदा ही हुआ है। पहली के बच्चे दूसरी के पाठ भी पढ़ते हैं और इसी तरह तीसरी के बच्चे चौथी के स्तर की शिक्षा हासिल कर लेते हैं।" हालाँकि, एक कुशल शिक्षक के बिना बच्चों को यह फायदा मिलना संभव नहीं था। सुनील ने बताया तो हमें यह जानकर आश्चर्य भी हुआ कि यह शेडफले गाँव की ही एक शाला है, जिसका वजूद गाँव से छह किलोमीटर दूर है। असल में इस शाला के आसपास गाँव के किसान अपने खेतों में घर बनाकर रहने लगे हैं और कुछ सालों में इस पहाड़ी के आजू-बाजू के अलग-अलग खेतों में दूर-दूर ऐसे किसानों के कुल 80 घर बन गए हैं। इन्हीं किसानों के बच्चों की शिक्षा को ध्यान में रखते हुए जिला परिषद, सांगली ने इस जगह स्कूल खोला है।
सुनील इसी गाँव से ही हैं और खास बात यह है कि सात साल से इस शाला के बच्चों को पढ़ाने की उनकी लगन रंग लाई है।
यह शाला अब जिले की आदर्श शालाओं में गिनी जाती है। महाराष्ट्र राज्य शिक्षा विभाग ने शिक्षण की गुणवत्ता के मापदण्‍ड पर इसे 'अ' श्रेणी यानी राज्य की सबसे अच्छी शालाओं में स्थान दिया है।

3 ) सरकारी स्‍कूलों में लौटता भरोसा : तीन


यह शिक्षा के निजीकरण का दौर है। यह देश के अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों से उनके डॉक्टर, इंजीनियर बनने के सपनों के छिन जाने का दौर है। यह महँगी फीस, महँगे स्कूल और उम्दा पढ़ाई के नाम पर अमीर तथा गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की खाई को और भी ज्यादा चौड़ा कर देने का दौर है। यह अमीरों के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों का दौर है। इसलिए, यह गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ देने का दौर है। इस दौर में हम देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत किस तरह बद से बदतर बना दी जा रही है। लेकिन, जरा ठहरिए! यह दूर—दराज के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शिक्षक और समुदायों के साझा संघर्षों का भी दौर है जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की नींव बन रहे हैं। महाराष्ट्र के सांगली जिले के गाँवों से ऐसे ही स्कूलों की कहानियाँ, जिनमें बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही हैं। फिलहाल ऐसे छह स्‍कूलों की कहानियों को दर्ज  किया गया है। यहाँ प्रस्‍तुत है तीसरी कहानी।      
यमगार बस्ती शाला
इस स्कूल के बनने की कहानी गजब-दिलचस्प है!
बारह साल पहले जब यहाँ यह स्कूल नहीं था तब एक आदमी ने अपनी जमीन दान कर दी। लेकिन, स्कूल के लिए जब भवन उपलब्ध नहीं था तब दो लोगों ने अपने घर दान दे दिए और खुद अपनी-अपनी झोपड़ियों में ही रहते रहे। लेकिन, जब पढ़ाने के लिए कोई शिक्षक उपलब्ध नहीं था तब गाँव का ही एक बी.ए. पास युवक इसके लिए तैयार हुआ, जो महज एक हजार रूपये महीने के वेतन पर लगातार नौ सालों तक पढ़ाता रहा और इस तरह इस बस्ती के छोटे बच्चों को तीन किलोमीटर दूर स्कूल जाने से छुटकारा मिल गया। लेकिन, कक्षा में जब बच्चों को बैठने के लिए कुर्सी-टेबल नहीं थे तब पुणे में नौकरियाँ करने वाले गाँव के अन्य युवकों ने कुर्सी-टेबल उपलब्ध कराए। फिर बच्चों के माता-पिता ने बोर्ड, पंखे और साज-सज्जा के सामान उपलब्ध कराए। ग्राम पंचायत ने 52 इंच का कलर टीवी उपलब्ध कराया और बिजली-पानी की सुविधा दी।
और जब बच्चों ने साल-दर-साल अच्छे परीक्षा परिणाम दिए तब महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग का ध्यान इस बस्ती शाला की ओर गया और जिला परिषद, सांगली ने 2014 में इस बस्ती शाला को प्राथमिक शाला का दर्जा दिया और इस जगह पर यह एक नया स्कूल भवन बनवाया। साथ ही यहाँ के शिक्षक को स्थाई नौकरी पर रखा।
अब इस साल से पहली से चौथी तक के 33 बच्चे ऑनलाइन शिक्षण हासिल कर रहे हैं। यानी शिक्षक मोबाइल से वाईफाई कनेक्ट करते हैं और इंटरनेट की मदद से गूगल में जाकर महाराष्ट्र सरकार और जिला परिषद के पाठ्यक्रम सर्च करते हैं और अपनी जरूरत के हिसाब से बच्चों को सम्‍बन्धित पाठ पढ़ाते हैं।
इस तरह, जब देश के बहुत सारे स्कूल डिजिटल बनने की कतार में बहुत पीछे हैं तब महाराष्ट्र के एक सुदूर गाँव का यह स्कूल डिजिटल स्कूलों में शामिल है।
यह है जिला मुख्यालय सांगली से 80 किलोमीटर दूर यमगार बस्ती का स्कूल, जो बनपुरी ग्राम पंचायत के अन्‍तर्गत आता है। इस बस्ती में करीब एक हजार लोग रहते हैं। इन्होंने यह साबित किया है कि जन-सहयोग से किस तरह सरकारी स्कूलों को एक नई पहचान दी जा सकती है और साथ ही इनमें सुधार भी लाया जा सकता है।
अहम बात यह है कि यहाँ के ज्यादातर किसान लोगों ने आने वाली पीढ़ी के लिए शिक्षा का महत्त्व समझा और एक साझा पहल की है। इस पहल का नतीजा बारह साल बाद आज दिखाई दे रहा है। शिक्षा में होने वाले प्रयास तुरन्‍त नहीं दिखते, इसलिए इस बस्ती के प्रयास धीरे-धीरे परवान चढ़े हैं।
आखिर कौन हैं ये लोग? आइए, ऐसे महान लोगों से आपका परिचय कराते हैं। जानते हैं इनके नाम और काम के बारे में।
वर्ष 2005 में तातोवा महाकंडी यमगार नाम के व्यक्ति ने स्कूल के लिए 5,000 वर्ग मीटर जमीन दान दी। इसके बाद जीजाराम यमगार और विश्वास काले नाम के दो व्यक्तियों ने अपने-अपने घर दिए और खुद बाजू की झोपड़ियों में रहे। फिर बिरू नामदेव मूढ़े नाम के नवयुवक ने बारह हजार रूपए सालाना पर बतौर शिक्षक नौ सालों तक बच्चों को पढ़ाया। इसके अलावा कई नाम नींव के पत्थर की तरह हैं।
अब इस स्कूल में दो शिक्षक हैं। एक तो खुद बिरू नामदेव मूढ़े और दूसरे स्कूल के मुख्य अध्यापक भारत भीमशंकर डिगोले।

4) सरकारी स्‍कूलों में लौटता भरोसा : चार


यह शिक्षा के निजीकरण का दौर है। यह देश के अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों से उनके डॉक्टर, इंजीनियर बनने के सपनों के छिन जाने का दौर है। यह महँगी फीस, महँगेस्कूल और उम्दा पढ़ाई के नाम पर अमीर तथा गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की खाई को और भी ज्यादा चौड़ा कर देने का दौर है। यह अमीरों के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों का दौर है। इसलिए, यह गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ देने का दौर है। इस दौर में हम देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत किस तरह बद से बदतर बना दी जा रही है। लेकिन, जरा ठहरिए! यह दूर—दराज के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शिक्षक और समुदायों के साझा संघर्षों का भी दौर है जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की नींव बन रहे हैं। महाराष्ट्र के सांगली जिले के गाँवों से ऐसे ही स्कूलों की कहानियाँ, जिनमें बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही हैं। फिलहाल ऐसे छह स्‍कूलों की कहानियों को दर्ज  किया गया है। यहाँ प्रस्‍तुत है चौथी कहानी।      
रानमला बस्ती शाला
एक छोटे-से कमरे के एकमात्र दरवाजे पर हर दिन सुबह-सुबह छोटे बच्चे एक सुन्‍दर रंगोली बनाते हैं, जो अँग्रेजी के किसी एक अक्षर पर आधारित होता है। जैसे कि शुक्रवार को छोटे बच्चों ने अँग्रेजी के एक अक्षर F के आधार पर यह रंगोली तैयार की है। इसमें F से शुरू होने वाले शब्द हैं- Fan, Fox, Foot, Fat।
यह छोटे-से कमरे का एकमात्र दरवाजा है रानमला बस्ती की प्राथमिक शाला का, जो महाराष्ट्र के सांगली जिले से 85 किलोमीटर दूर है।
इस शासकीय शाला के एकमात्र शिक्षक रचनात्मक व्यक्ति हैं और बच्चों के खिलौने बनाने के लिए इन्हें अलग-अलग मंचों पर सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर सम्मानित किया जा चुका है।
सचिन गायकवाड़ नाम के इन शिक्षक की एक और विशेषता यह है कि यह बाल मन को बहुत गहराई से जानते-समझते हैं और उसी के हिसाब से बच्चों को पढ़ाते-सिखाते हैं।
जैसे कोई भी विषय को पढ़ाने-सिखाने से पहले ये कुछ देर के लिए बच्चों को "साइलेंट" का अनुदेश देते हैं। फिर किसी लघु-गीत या लघु-कथा से भूमिका बाँधते हैं।
उदाहरण के लिए, एक मुद्दे पर बच्चों के भिन्न-भिन्न मत जानने के पहले ये एक लघु-गीत को हाव-भाव के साथ बता रहे हैं। इसमें बताया जा रहा है कि एक बन्‍दर स्कूल जा रहा है, लेकिन स्कूल जाने के रास्ते में उसे कौन-कौन मिल रहा है और वह उन्हें क्या-क्या बोल रहा है। वह कैसी-कैसी हरकतें करते हुए स्कूल जा रहा है।
इनकी शाला में 25 बच्चे हैं। इनमें 15 लड़कियाँ हैं।

5) सरकारी स्कूलों पर लौटता भरोसा : पाँच


यह शिक्षा के निजीकरण का दौर है। यह देश के अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों से उनके डॉक्टर, इंजीनियर बनने के सपनों के छिन जाने का दौर है। यह महँगी फीस, महँगे स्कूल और उम्दा पढ़ाई के नाम पर अमीर तथा गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की खाई को और भी ज्यादा चौड़ा कर देने का दौर है। यह अमीरों के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों का दौर है। इसलिए, यह गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ देने का दौर है। इस दौर में हम देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत किस तरह बद से बदतर बना दी जा रही है। लेकिन, जरा ठहरिए! यह दूर—दराज के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शिक्षक और समुदायों के साझा संघर्षों का भी दौर है जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की नींव बन रहे हैं। महाराष्ट्र के सांगली जिले के गाँवों से ऐसे ही स्कूलों की कहानियाँ, जिनमें बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही हैं। फिलहाल ऐसे छह स्‍कूलों की कहानियों को दर्ज  किया गया है। यहाँ प्रस्‍तुत है पाँचवी कहानी।       
मादलमुठी शाला 
"देश भर के गाँवों में ऐसा स्कूल मिलना मुश्किल है।"- यह दावा है मादलमुठी शाला के मुख्य अध्यापक बालासाहेब नाथाजी आडके का। उन्हें अपनी बात पर भरोसा तब हुआ था जब दो वर्ष पहले शोधकार्य से जुड़ी दिल्ली की एक टीम उनकी शाला का निरीक्षण करने आई थी। उस टीम ने देश भर के विभिन्न राज्यों के गाँवों के स्कूलों का दौरा किया था। और उसके सदस्यों ने बताया था कि देश के बाकी ग्रामीण स्कूलों से मादळमुठी गाँव का स्कूल अनोखा है। आखिर क्या खास है यहाँ?
असल में महाराष्ट्र के जिला सांगली से 60 किलोमीटर दूर का यह सरकारी स्कूल एक दर्शनीय स्थल भी है। पहली नजर में यहाँ का विशाल परिसर और बड़ा बागीचा आकर्षित तो करता है, लेकिन अलग-अलग समूह के लोग यहाँ कुछ और ही देखने के लिए आते हैं। मादळमुठी के इस स्कूल को वर्ष 2017 में अन्‍तर्राष्ट्रीय मानक संगठन द्वारा ISO स्कूल घोषित किया गया है।
इस स्कूल के विशाल परिसर का अन्‍दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहली से सातवीं कक्षा के कुल 168 बच्चों के शिक्षण के लिए यहाँ सात अलग-अलग बड़े कमरे हैं। इसके अलावा तीन महिला और तीन पुरुष टीचर के लिए दो कमरे अलग हैं। पाँच विशेष कक्ष अलग-अलग विषयों से सम्‍बन्धित संग्रहालयों के लिए आरक्षित हैं। फिर वाचनालय अलग से है। खेल का मैदान और बगीचा तो है ही। दूसरे छोर पर लड़के-लड़कियों के लिए रिफ्रेश-रूम भी हैं।
लेकिन आकर्षण के केन्‍द्र हैं पाँच अलग-अलग कक्षों में संचालित संग्रहालय। यूँ तो यहाँ की सभी सात कक्षाओं के डिजिटल क्लास-रूम हैं, इसके बावजूद अलग से कंप्यूटर-रूम बना हुआ है। यह इस शाला का डिजिटल संग्रहालय है। इसमें बच्चे कंप्यूटर की विशेष कक्षा का अभ्यास करने के अलावा कंप्यूटर और इंटरनेट की दुनिया का विकास-क्रम जानते हैं।
इस शाला की स्थापना का वर्ष 1938 है, लिहाजा पिछले अस्सी वर्षों के स्थानीय अतीत का लेखा-जोखा यहाँ के इतिहास के संग्रहालय में दर्ज है। इसके साथ ही महाराष्ट्र और देश के इतिहास को फोटो-कैप्शन के जरिए संजोया गया है।
यहाँ के बच्चे कई बार गणित विषय में प्रदेश में टॉप आए हैं। यहाँ एक गणित कक्ष भी है, जिसकी दीवारों पर गणित के गूढ़ सवालों को सुलझाने के उपाय हैं। साथ ही कक्ष के बीचोंबीच एक कंप्यूटर भी रखा गया है। इसमें हर कक्षा स्तर के गणित के सूत्र आसानी से सुलझाने के सुझाव दिए गए हैं।
अगला कक्ष विज्ञान के संग्रहालय के लिए हैं। इसमें एक बड़ा फिल्म प्रोजेक्टर लगा हुआ है, जिसमें साइंस से सम्‍बन्धित सामग्री है। साथ ही दुनिया भर के बड़े वैज्ञानिकों के पोस्टर और उनकी खोजों के बारे में जानकारियाँ हैं। साथ ही वैज्ञानिक उपकरण और प्रयोगशाला के लिए अलग सेक्शन भी है। यहाँ से एक रास्ता बगीचे से होकर बाहर के लिए जाता है। रास्ते में कई स्थानीय जीव-जन्‍तुओं के मॉडल हैं।
यहीं अस्सी साल पुराना एक वाचनालय है, जिसमें एक हजार से अधिक पुस्तकें उपलब्ध हैं। स्कूल की दीवारों पर यहीं के शिक्षकों ने भित्ति-चित्र बनाए हैं।
स्कूल की भौतिक व्यवस्था से अलग यहाँ के बच्चे कई बार परीक्षा-परिणाम, खेल और सांस्कृतिक गतिविधियों में प्रदेश स्तर पर प्रथम स्थान हासिल कर चुके हैं। वहीं, सामाजिक योजना के तहत 'पानी बचाओ' जैसे अभियानों में तालाब सफाई से जुड़े कार्यों में श्रमदान करते हैं।

6) सरकारी स्कूलों पर लौटता भरोसा: छह


यह शिक्षा के निजीकरण का दौर है। यह देश के अभावग्रस्त परिवारों के बच्चों से उनके डॉक्टर, इंजीनियर बनने के सपनों के छिन जाने का दौर है। यह महँगी फीस, महँगे स्कूल और उम्दा पढ़ाई के नाम पर अमीर तथा गरीब बच्चों के बीच शिक्षा की खाई को और भी ज्यादा चौड़ा कर देने का दौर है। यह अमीरों के बच्चों के लिए प्राइवेट स्कूलों का दौर है। इसलिए, यह गरीब बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों को उनके हाल पर छोड़ देने का दौर है। इस दौर में हम देख रहे हैं कि सरकारी स्कूलों की हालत किस तरह बद से बदतर बना दी जा रही है। लेकिन, जरा ठहरिए! यह दूर—दराज के ग्रामीण इलाकों में ऐसे शिक्षक और समुदायों के साझा संघर्षों का भी दौर है जो सरकारी स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता की नींव बन रहे हैं। महाराष्ट्र के सांगली जिले के गाँवों से ऐसे ही स्कूलों की कहानियाँ, जिनमें बदलाव की आहट साफ सुनाई दे रही हैं। फिलहाल ऐसे छह स्‍कूलों की कहानियों को दर्ज  किया गया है। यहाँ प्रस्‍तुत है पाँचवी कहानी।
कोठीली गाँव
किसी एक छोटे गाँव की प्राथमिक शाला की अपनी वेबसाइट होना विशेष भले ही न लगे, लेकिन क्या यह कल्पना की जा सकती है कि इस शाला की वेबसाइट महाराष्ट्र राज्य के शिक्षा विभाग की वेबसाइट के समानान्‍तर लोकप्रियता हासिल कर रही हो! वह भी महज सात महीने में।
महाराष्ट्र के सांगली जिले की कोठीली गाँव की प्राथमिक शाला के सहायक शिक्षा पीडी शिंदे ने एक ऐसी ही साइट तैयार की है। इस साइट पर बीते साल जून से अब तक करीब सात लाख विजिटर जुड़ चुके हैं। साइट पर विजिटर की गणना करने वाला गजट बताता है कि इससे हर महीने औसतन एक लाख नए विजिटर जुड़ रहे हैं। इतने कम समय में इतनी लोकप्रियता ने खासतौर से राज्य की शिक्षा व्यवस्था से जुड़ी सूचनाओं से ताल्लुक रखने वालों का ध्यान इस ओर खींचा है। इस साइट की खासियत यह है कि इसकी पूरी सामग्री सरल और अनौपचारिक भाषा में है। फिर यह पूरी तरह मराठी भाषा की साइट है। स्कूली शिक्षा से जुड़ी हर आवश्यक जानकारी और सूचना साइट पर अपडेट जाती है।
इस साइट का अपना मोबाइल ऐप और यू ट्यूब चैनल भी है।
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