


"अध्यापक की सोच" ब्लॉग केवल अध्यापकों के लिए ही है . इसमें जितनी भी सामग्री होगी वो मूलतः शिक्षाविदों के लिए, शिक्षाविदों के द्वारा लिखी गई है . शिक्षक का दर्जा समाज में हमेशा से ही पूजनीय रहा है। कोई उसे गुरु कहता है, कोई शिक्षक कहता है, कोई आचार्य कहता है, तो कोई अध्यापक या टीचर कहता है ये सभी शब्द एक ऐसे व्यक्ति को चित्रित करते हैं, जो सभी को ज्ञान देता है, सिखाता है और जिसका योगदान किसी भी देश या राष्ट्र के भविष्य का निर्माण करना है।
गरीबी के बावजूद भी ये लोग बने IAS
प्रेषित : अध्यापक की सोच
जब सुख सुविधाओं से संपन्न युवा अपने कीमती समय को आत्मसंतुष्टि में बिता रहे होते हैं ऐसे समय में वंचित छात्रों का भी एक समूह है जो अपने दृढ़ संकल्पों के साथ सभी प्रकार की रुढ़ियों को तोड़ते हुए करियर की बुलंदियों को हासिल कर रहे हैं। ऐसे जीवंत उदाहरणों में से कुछ उदाहरण हैं सफल सिविल सेवा उम्मीदवारों की जो कि सिविल सेवा अधिकारी किसी रिक्शा चालक के बेटा/ बेटी हैं या किसी रेहड़ी–पटरी पर सामान बेच कर अपने परिवार का भरण–पोषण करने वाले विक्रेता की संतान हैं।
आपने IAS बनने की इच्छा रखने वालों की प्रेरक कहानियों को जरूर सुना– पढ़ा होगा लेकिन नीचे दी गई ऐसी 5 कहानियां संभवतः आपकी सोच की दिशा बदल सकता है। आईये इन व्यक्तियों की शानदार सफलता की कहानियों और उपलब्धियों को पढ़कर अपने उत्साह को रिचार्ज करें।
1. अंसार अहमद शेख (21 वर्षीय)– ऑटो चालक का बेटा
अंसार अहमद शेख UPSC सिविल सेवा परीक्षा में सफल होने वाले सबसे युवा उम्मीदवार रहे हैं। उन्होंने यह उपलब्धि 2015 में अपने पहले ही प्रयास में सफलता अर्जित की। उस समय इनकी उम्र मात्र 21 वर्ष थी। इनका अखिल भारतीय रैंक 361 था।
अंसार शेख ऑटो रिक्शा चलाने वाले के बेटे और एक मैकेनिक के भाई हैं। महाराष्ट्र के जालना गांव के गरीब परिवार से ताल्लुक रखते हैं। अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद अनवर ने शुरुआत से ही पढ़ाई में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और पुणे के प्रतिष्ठित कॉलेज में बी.ए. (राजनीति विज्ञान) में दाखिला लिया। दृढ़ इच्छाशक्ति से प्रेरित अनवर ने यूपीएससी परीक्षाओं की तैयारी के साथ–साथ लगातार तीन वर्षों तक रोजाना 12 घंटों तक काम किया।
इन्होंने धार्मिक भेदभाव समेत सभी प्रकार की बाधाओं पर जीत हासिल की और भारत के सबसे प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षा यूपीएससी में सफलता अर्जित की। गरीब रुढ़ीवादी मुस्लिम परिवार के अंसार की उपलब्धि वाकई प्रशंसनीय है। कठिन प्रतियोगिता (कड़ी प्रतिस्पर्धा ) के इस दौर में अपनी पहचान के लिए संघर्ष करने वाले कई गरीब उम्मीदवारों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं अनवर।
2. कुलदीप द्विवेदी (27 वर्षीय) IPS– सुरक्षा गार्ड का बेटा
वर्ष 2015 में यूपीएससी द्वारा आयोजित की गई सिविल सेवा परीक्षा में कुलदीप द्विवेदी की अखिल भारतीय रैंक 242 रही। लखनऊ विश्वविद्यालय में सुरक्षा गार्ड का काम करने वाले के बेटे कुलदीप द्विवेदी ने यह साबित कर दिया कि यदि आपमें सफल होने की इच्छाशक्ति है तो कोई भी बाधा उसे रोक नहीं सकती। इनके पिता सूर्यकांत द्विवेदी लखनऊ विश्वविद्यालय में सुरक्षा गार्ड के तौर पर काम करते हैं और पांच लोगों के परिवार का लालन– पालन करते हैं। लेकिन सूर्य कांत की कमजोर आर्थिक स्थिति भी उनके बेटे को भारतीय समाज में सबसे प्रतिष्ठित नौकरी हासिल करने हेतु प्रोत्साहित करने से न रोक सकी। उन्होंने अपने बेटे की महत्वाकांक्षा का सिर्फ नैतिक रूप से बल्कि अपनी क्षमता के अनुसार आर्थिक रूप से भी समर्थन किया। नतीजों के घोषित होने के बाद भी पूरे परिवार के लिए यह विश्वास करना मुश्किल हो रहा था कि उनके सबसे छोटे बेटे ने अपने जीवन की सबसे बड़ी खुशी हासिल कर ली है।
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा आयोजित की जाने वाली लोक सेवा परीक्षा में रैंक लाने का अर्थ क्या है, यह अपने परिवार को समझाने में कुलदीप द्विवेदी को समय लगा। तीन भाईयों और एक बहन में ये सबसे छोटे हैं और बचपन से ही सिविल सेवक बनना चाहते थे।
कुलदीप द्विवेदी ने 2009 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक किया था और 2011 में अपने स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने साबित कर दिखाया कि कड़ी मेहनत किसी भी परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती बल्कि खुद की क्षमताओं पर भरोसा करना सबसे महत्वपूर्ण है। उनकी सफलता दृढ़– संकल्प एवं लक्ष्य पर केंद्रित मन और पिता के प्रयासों का उदाहरण है। इन्होंने अपनी गरीबी को पीछे छोड़ते हुए सफलता के लिए काफी मेहनत की।
3. श्वेता अग्रवाल– पंसारी की बेटी
एक और दिल को छू लेने वाली कहानी। भद्रेश्वर के पंसारी की बेटी – श्वेता अग्रवाल जिन्होंने 2015 में हुई यूपीएससी की परीक्षा में 19वीं रैंक हासिल कर अपने IAS बनने के सपने को साकार किया। इनके संघर्ष की कहानी कई बाधाओँ को पार करने से भरी है। इसमें मूलभूत शिक्षा सुविधाओँ से लेकर यूपीएससी परीक्षा 2015 की अव्वल 3 महिला उम्मीदवारों में आना तक शामिल है। वे बताती हैं कि कैसे गरीबी से लड़ते हुए उनके माता– पिता ने उन्हें अच्छी शिक्षा प्रदान की। श्वेता को अपने माता– पिता पर बेहद गर्व है।
श्वेता ने अपनी स्कूली शिक्षा सेंट जोसेफ कॉन्वेंट बंदेल स्कूल से पूरी की। स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद श्वेता ने सेंट जेवियर्स कॉलेज कोलकाता से आर्थशास्त्र में स्नातक किया।
श्वेता ने इससे पहले यूपीएससी परीक्षा दो बार पास की, लेकिन वे आईएएस अधिकारी ही बनना चाहती थी। बंगाल कैडर में शामिल होने पर श्वेता को गर्व है और यह भी सोचती हैं कि ज्यादातर युवा सिविल सेवा से इसलिए दूर रहते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें जनता की बजाय राजनीतिक आकाओं के मातहत काम करना पड़ेगा। यह हमेशा कहा जाता है कि मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की के माता–पिता द्वारा उनके महत्वाकांक्षी सपनों को समर्थन देना बहुत मुश्किल होता है l लेकिन लैंगिक भेद समेत सभी प्रकार की बाधाओँ को पीछे छोड़ते हुए श्वेता अग्रवाल और उनका परिवार बिना शर्त की जाने वाली कड़ी मेहनत और लगन का उदाहरण है।
4. नीरीश राजपूत– दर्जी का बेटा
नीरीश राजपूत के पिता वीरेन्द्र राजपूत एक दर्जी हैं । मध्य प्रदेश के भिंड जिले का एक गरीब युवा हैं, इन्होंने बेहद कठिन सिविल सेवा परीक्षा में पास होने के लिए सभी मुश्किलों को पार किया और साबित किया कि गरीबी सफलता के लिए बाधा नहीं है।
सिविल सेवा परीक्षा के पिछले तीन प्रयासों में वे विफल रहे थे लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी। चौथे प्रयास में वे 370वीं रैंक के साथ पास हुए। वे गोहाड तहसील के मऊ गांव में 300 वर्ग फीट के घर में रहते थे। सिविल सेवक बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने अखबार डालने जैसे कई प्रकार के काम भी किए।
उन्हें नहीं पता था कि आईएएस अधिकारी कैसे बना जा सकता है लेकिन वे जानते थे कि देश के शीर्ष परीक्षा में सफल होने के बाद हीं वे अपना भाग्य बदल सकते हैं और उन्हें विश्वास था कि यदि कोई दृढ़ संकल्पी हो और कड़ी मेहनत करने को तैयार हो तो उनकी गरीबी उसकी सफलता की राह में बाधा नहीं हो सकती। वे सरकारी स्कूल और फिर ग्वालियर के औसत दर्जे के कॉलेज से पढ़े थे। उनके दो बड़े भाई जो अनुबंध शिक्षक हैं, नीरीश के सपने को साकार करने के लिए अपनी अधिकांश जमापूंजी, ऊर्जा और हिम्मत नीरीश को सौंप दी। उन्होंने इस मिथक को भी तोड़ा कि पब्लिक स्कूल के छात्र ही इन परीक्षाओं में अच्छा कर सकते हैं।
5. ह्रदय कुमार – किसान का बेटा
ओडीशा के केंद्रपाड़ा जिले का सूदूर गांव अंगुलाई के बीपीएल धारक किसान के बेटे ह्रदय कुमार ने सिविल सेवा परीक्षा 2014 में 1079वीं रैंक हासिल की थी। वंचित पृष्ठभूमि का होने के बावजूद उन्होंने कभी हार नहीं मानी और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। इनका परिवार सरकार द्वारा चलाई गई सामाजिक कल्याण फ्लैगशिप कार्यक्रम इंदिरा आवास योजना के तहत मिले घर में रहता था।
ह्रदय कुमार ने सरकारी प्राथमिक विद्यालय तथा एवं उच्च विद्यालय से प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। 12वीं की परीक्षा इन्होंने द्वितीय श्रेणी में पास की थी लेकिन वे क्रिकेट में अच्छे थे और क्रिकेट में ही करियर बनाना चाहते थे। इन्होंने कालाहांडी अंतरजिला क्रिकेट प्रतियोगिता में अपने घरेलू जिला टीम का प्रतिनिधित्व भी किया था। लेकिन नियति ने उनके लिए कुछ और ही तय कर रखा था तथा खेल करिअर में आगे बढ़ने की अनिश्चितताओं ने उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में करियर चुनने को विवश किया। माध्यमिक शिक्षा पूरी करने के बाद इन्होंने उत्कल विश्वविद्यालय में पांच– वर्षों के समेकित एमसीए कोर्स में दाखिला लिया। पढ़ाई के लिए मिले माहौल का उन्होंने बेहतर इस्तेमाल किया और सिविल सेवा परीक्षा में अपना भाग्य आजमाया। लेकिन पहले दो प्रयासों में ये मेधा सूची में आने में विफल रहें ।
अन्य प्रेरक कहानियां–
6. मनोज कुमार रॉय– अंडा विक्रेता से सिविल सेवक
इन्होंने चौथे प्रयास में यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा पास की और अब भारतीय आयुध निर्माणी सेवा (आईओएफएस) अधिकारी के तौर पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। सप्ताहांत वे अपने राज्य के गरीब छात्रों को यूपीएससी परीक्षा में पास होने के लिए पढ़ाते हैं। दिल्ली में अपने संघर्ष के दिनों में उन्होंने अंडे बेचे, सब्जियां बेचीं और यहां तक कि पैसे कमाने के लिए दफ्तर में पोछा लगाने का भी काम किया।
के. जयगणेश– वेटर से आईएएस अधिकारी बनने का सफर
के. जयगणेश सिविल सेवा परीक्षा में छह बार विफल हुए लेकिन कभी हार नहीं मानी। अपने अंतिम प्रयास में वे 156वें रैंक से पास हुए और भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए। जयगणेश तमिलनाडु के एक गांव के बेहद गरीब परिवार से हैं और फिर भी वे इंजीनिर बनें । कई तरह के काम किए। आईएएस अधिकारी बनने के अपने सपने को पूरा करने के लिए वेटर का भी काम किया।
गोविंद जायसवाल– रिक्शाचालक का बेटा
इनके पिता ने कड़ी मेहनत की, अपनी आजीविका की एक मात्र साधन जमीन बेच दी ताकि गोविंद की पढ़ाई हो सके। अपने पिता के संघर्षों और सपने को पूरा करते हुए गोविंद ने 2006 की सिविल सेवा परीक्षा 48वीं रैंक के साथ पास की।
नासमझों की समझ और सोच को हम सामान्यतः नकार देते हैं। ये तो बच्चे है ये क्या समझेंगे; तुम बच्चे हो अभी तुम्हारी समझ कम है; तुम बच्चे हो तुम हमें सही गलत सिखाओगे? हम कहते हैं, “तुम जानते ही कितना हो?”
आखिर क्यों ? क्यों हम उनकी सोच को नकार देते हैं ? अगर मैं समझ की बात छोड़ भी दूँ, तो हम बड़ों को तो यह भी नहीं लगता कि बच्चे सोच सकते हैं। किसी भी स्थिति को लेकर उनकी अपनी कोई सोच भी हो सकती है। हमारी बच्चों के प्रति ऐसी अवधारणा कहीं न कहीं गलत होती हैं। बच्चे भी सोचते हैं। उनका भी अपने समाज के प्रति एक नजरिया होता है, जिसे वे दूसरों के बीच रखना चाहते हैं, वे दूसरों को बताना चाहते हैं, परन्तु फिर वही “ये बच्चे हैं, अबोध हैं ये क्या विचार रखेंगे” ऐसी सोच उनको ऐसा करने से रोकती है। बच्चों के विचार शायद हमारे विचार से बेहतर होते हैं। हमारे उस समाज के विचार से अच्छे होते हैं, जो स्वार्थ और नफरत का चश्मा पहने हुए होता है।
कक्षा 5 के बच्चों के साथ जब मैंने उनकी रचनात्मकता और समाज को लेकर उनकी समझ को समझने के लिए काम किया तब मुझे यह एहसास हुआ कि हम कितने गलत हैं। मैंने बच्चों को सिर्फ एक चित्र दिया, जिस पर उन्हें एक कहानी लिखनी थी। पाँचवी के बच्चे जिन्हें हम मानते हैं कि इनको शेर, भालू, चीते की कहानी पसन्द होती हैं, उन्होंने उस तस्वीर की जो कहानी उकेरी, वो मेरी भी सोच से परे था। बच्चों को यह तस्वीर दिखाई गई।
इस चित्र को देखकर छोटी उम्र के इन बच्चों के ऐसे विचार और अनुभव सामने आए, जो इन्होंने कभी न कभी अपने समाज में या तो देखें हैं या महसूस किए हैं। उन्होंने अपनी इसी अनुभव और दृष्टिकोण को कहानी के रूप में पेश किया। उन कहानियों की कुछ झलकियाँ।
स्टोरी 1
कहानी का सार यह था कि महिला नीची जाति की थी और आदमी जो ऊँची जाति का था। उसे पानी नहीं भरने देता। वह उससे कहता है कि तुम नीची जाति की हो इस कारण यहाँ से पानी नहीं भर सकती।
बच्चे ने वही लिखा जो उसने अपने जीवन में अनुभव किया और सिर्फ यही नहीं जाति भेदभाव को लेकर उसने अपनी लिखी कहानी में अपने विचार भी अभिव्यक्त किए कि जब हम सबका खून लाल है, हम सब अन्न ही खाते हैं, तो हमें इस तरह का भेद नहीं करना चाहिए। उस बच्चे ने यह भी लिखा है कि अगर हम कहीं ऐसा देखेंगे तो उन्हें समझाएँगे। ये बच्चा जो कक्षा 5 का छात्र है जाति भेदभाव को इतनी गहराई से समझता है जिस बात को बड़े लोग नहीं समझ पाते हैं या समझना ही नहीं चाहते हैं l
स्टोरी 2
एक बच्चे ने लिखा कि आदमी उस महिला को पानी इसलिए नहीं भरने दे रहा क्योंकि महिला बीच में अपना घड़ा लगाने की कोशिश कर रही है। बच्चे के अनुसार गलती महिला की है। उसे लाइन में लगना चाहिए था। अगर इस चित्र को हम देंखेंगे तो शायद इस बारे में नहीं सोच पाएँगे क्योंकि ऐसी कोई लाइन भी चित्र में दिखाई नहीं दे रही है। उस बच्चे ने वही लिखा, जो उसने अपने परिवेश में देखा है, अनुभव किया है और उसने अपने इसी अनुभव को चित्र में देखा तथा कहानी के रूप में उसकी कल्पना की।
स्टोरी 3
इस कहानी में बच्चे ने लिखा कि औरत को घर जाने की जल्दी होती है, इसलिए वह आदमी को कहती है कि मुझे पानी भर लेने दो। इस पर आदमी कहता है कि नहीं मुझे भी घर जाना है। मैं पहले भरूँगा। इस कहानी को लेकर बच्चे ने अपना जो दृष्टिकोण रखा वह यह था कि हमें दूसरों की परेशानी को भी समझना चाहिए।
बाद में पूछने पर बच्चे ने अपना खुद का अनुभव बताया है। किस तरह उसके गाँव के हैंडपम्प पर भीड़ होने की वजह से परेशानी होती है। उसे स्कूल आना होता है और निवेदन करने पर भी उसे पहले पानी नहीं भरने दिया जाता। जिससे वह कई बार स्कूल देर से पहुँचता है।
स्टोरी 4
इस कहानी को बच्चे ने एक अलग ही दृष्टिकोण दिया है, उसने लिखा है कि जब औरत पानी भरने जाती है और वह आदमी उसे पानी नहीं भरने देता है। तब वह अपने घर में भी एक वॉटर टैंक बनवा लेती है। एक दिन आदमी के वाटर टैंक में पानी नहीं आ रहा था, तब वह औरत के पास उसके वॉटर टैंक से पानी भरने जाता है। वह उसे पानी भरने देती है इस पर आदमी को अपनी भूल का एहसास होता है और वह उससे माफी माँगता है। इस पर औरत कहती है कि कोई बात नहीं। इस कहानी से इस बच्चे का आशय साफ झलकता है कि कोई कैसा भी व्यवहार करे, हमें हमेशा सबकी मदद करनी चाहिएl अपने मन में किसी के लिए कोई बैर नहीं रखना चाहिए।
ये कहानियाँ पढ़ने के बाद भी क्या हम कहेंगे कि ये बच्चे कुछ नहीं समझते । इनमें सोचने की, विश्लेषण करने की क्षमता या तो कम है या फिर नहीं है। इनमें से कुछ कहानियाँ उन्ही भील बच्चों ने लिखी है,जिनके लिए बड़ी आसानी से लोग कह दिया करते हैं, “ये बच्चे कुछ सीख नहीं सकते यह तो मन्दबुद्धि होते हैं।’’
हम अपनी असफलताओं का दोष भी इन बच्चों पर डालकर अपनी जिम्मेदारियो से बड़ी आसानी से खुद को बरी कर लेते हैं।
हमें ठहरकर सोचने की जरूरत है कि आखिर क्यों हम इन बच्चों से उनकी कल्पनाशीलता ,उनके सोचने और अभिव्यक्त करने की आजादी को छीनकर उन्हें किसी अँधेरी खाई की ओर धकेल देते हैं।
क्या उनकी इन कहानियों में ज्ञान का वो प्रकाश दिखाई नहीं दे रहा, जिसकी रोशनी की आज हमें “एक अच्छे समाज निर्माण” के लिए जरूरत है, जहाँ लोग एक-दूसरे को समझें, एक-दूसरे के प्रति आदर और सम्मान की भावना रखें। वह भावना जो जाति, धर्म, ऊँच-नीच पर आधारित न हो।
हमारे और आपकी तरह ये भी उसी जात-पात, धर्म भेद के दंश को अपने समाज में देखते हैं, अनुभव करते हैं परन्तु इनका बाल मन साफ है, निश्छल है।
लेकिन अफसोस कि उन्हें गला काट प्रतियोगिता में झोंककर हम उनकी यह समझ और सोचने की शक्ति उनसे छीन लेंगे और उनको यह समाज एक सामाजिक रोबोट बना देगा, जो न कुछ सोच पाएगा न ही कोई सवाल कर पाएगा।
स्वाति भंडारी, फैलो, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन,जिला संस्थान,राजसमंद, राजस्थान
प्रस्तुति : अध्यापक की सोच